मंगलवार, अप्रैल 16, 2019

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था !!

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था
तुमनें नयनों में अश्रु दिए थे/ पर मैंने तो सावन मांगा था

तुमनें स्वर्णिम स्वप्न दिखाए 
और स्मृतियों को दिया सहारा
मैं उलझी भटकी नदिया न्यारी
तुमनें मुझको दिया किनारा
मैं हिय मंदिर में रहने वाला
निर्वासित कुलदेव बेचारा
हाँ सच है मैं डूब रहा था
तुमनें मुझको पुनः उबारा

तुमने जग दे डाला मुझको
पर मैंने घर आंगन माँगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था।

जग में जितने दग्द हृदय हैं
सब मंदिर, सब देवालय हैं
पीड़ाओं के शत सिंधु यहां हैं
खंडित हिय के हिमालय हैं
मैं पीड़ाओं का साधक हूँ
तुममें पीड़ाओं के शिवालय हैं।

मैंने उसी पावन पीड़ित मन का
एक पवित्र आलिंगन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

जैसे निद्रा में स्वप्न जागता
वैसे तुम मुझमें जागी थी
तुम प्रेम समर्पण की साधक थी
तुम अनंत अनुरागी थी
नयन तुम्हारे मारक मोहक
तुमने नयनों में पीड़ाएं पागीं थीं

मैंने तुम्हारे निशब्द नयनों का
गंगाजल पावन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

अनुराग अनंत

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