बुधवार, अप्रैल 17, 2019

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-8

मेरी नियति जागते रहना है
मेरी किस्मत भागते रहना है
मेरी मेरुदंड पर उग आया है पहाड़
सोने के लिए लेटना चाहता हूँ तो लेट नहीं सकता
मेरी आँखों में छीपा रोता रहता है कोई
धड़कनें बनातीं रहतीं है खाइयाँ
बदहवास दौड़ कर आता है कोई
और सतह पर आख़री बुलबुले के साथ ही
वो भी खो जाता है कहीं
यही क्रिया दोहराई जाती है रात भर
अपने ही ज़िगर को खोदता हूँ
अपनी ही आत्मा में कूदता हूँ
मुंडेर पर ढेर होता रहता हूँ
सड़कों पर देर रात कुत्तों से बच कर टहलता हूँ
दूर चौराहे तक जाता हूँ
एक सिगरेट, एक चाय पी कर आता हूँ
मानों यही करने के लिए लिया हो जन्म
मानो ये ना किया तो मर जाऊंगा

अनुराग अनंत 

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