बुधवार, अप्रैल 17, 2019

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-12

मैंने अपनी नींद तुम्हारी आँखों के नाम कर दी
और तुम्हारी आँखों में दुहरी नींद तैरती रही
दोगुना नशा
दोगुनी मादकता
चंचलता कितनी गुनी थी, पता नहीं !
पर इतना मालूम है
तुम्हारी आंख वो मिथकीय तालाब है
जिसमें झाँकते ही डूबकर मर जाने का मन करता है

तुम्हारी आँखों में ना जाने कितने डूब कर मरे होंगे
तुम्हारी आँखों में ना जाने कितनों की नींद बहती है
तुम्हारी आंखें ना जाने क्या कहतीं हैं।

अनुराग अनंत

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