सोमवार, अक्तूबर 31, 2011

मैंने माँ को देखा है ,

माँ 
मैंने माँ को देखा है ,
तन और मन के बीच ,
बहती हुई किसी नदी की तरह ,
मन के किनारे पर निपट अकेले,
और तन के किनारे पर ,
किसी गाय की तरह बंधे हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी मछली की तरह तड़पते हुए  बिना पानी के,
पर पानी को कभी नहीं देखा तड़पते  हुए बिना मछली के ,
मैंने माँ को देखा है ,
जाड़ा,गर्मी, बरसात ,
सतत खड़े किसी पेढ़  की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
हल्दी,तेल, नमक, दूध, दही, मसाले में सनी हुई ,
किसी घर की गृहस्थी की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी खेत की तरह जुतते हुए,
किसी आकृति की तरह नपते हुए,
घडी  की तरह चलते हुए,
दिए की तरह जलते हुए ,
फूलों की तरह महकते हुए ,
रात की तरह जगते हुए ,
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
पर..... माँ को नहीं देखा है,
कभी किसी चिड़िया  की तरह उड़ते हुए ,
खुद के लिए लड़ते हुए , 
बेफिक्री से हँसते हुए ,
अपने लिए जीते हुए, 
अपनी बात करते हुए ,
मैंने माँ को कभी नहीं देखा ,

मैंने बस माँ को माँ होते देखा है ,

तुम्हारा --अनंत 

मंगलवार, अक्तूबर 18, 2011

इस समुद्र के तन पर ध्यान से देखो खादी चढ़ी हैं
समुद्र के चुम्बकत्व को ख़तम करना है ,
जो खिंच कर पी जाता हैं सैकड़ों नदियाँ ,
हज़ारों लोगों को प्यासा छोड़ कर ,
तड़पते देखता है मुस्कुराते   हुए ,
देश और प्रदेश की राजधानियों में,
 सबसे शानदार इमारतों में हिलकोरा मरता हुआ ,
शोषित कंठों के रुदन पर अट्टहास करता हैं ,
यहीं  पर  बहता  है वो समुद्र ,अट्टहास करते हुए  

तुम्हारा--अनंत 

सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

15 अगस्त 1947 ,

आजादी के पहले 
कई बार ऐसा लगा है ,
स्वतंत्रता कैद हो गयी है ,
तारीख के किसी पुराने ,
जर्जर किले में,
जिसका नाम है ,
15 अगस्त 1947 ,
 उस किले के पीछे ,
और आगे बह रही है
मासूमों की खून की नदियाँ ,
जिनका कुसूर बस इतना था
कि उन्हें आजादी प्यारी थी 
आजादी के बाद 

तुम्हारा --अनंत

गुरुवार, अक्तूबर 13, 2011

खेत में घुट रहा हैं ,हिंद का किसान ,

हे मेघ तू मेरे प्राण बचा ले .................
खेत में घुट रहा हैं ,हिंद का किसान ,
जिन्दगी से हार कर, त्यागता है प्राण ,
धरणी पर रूप हरी का विपन्न है ,
जो खून इसका चूसता है,वो परजीवी प्रसन्न है ,
खादी में वो है लिपटा ,बैठा है गद्दी चापे ,
फैला हुआ हैं कितना ,अब कौन उसे  नापे ,
मजबूर हो गए सब हलधारी बलराम , 
गूंजता कहीं नहीं जय जवान ,जय किसान ,
खेतों में घुट रहा ,हिंद का किसान .............
खलियान में हैं मातम खेत खाली पड़े  हैं ,
क़र्ज़ हुआ भारी इन्द्र भी रूठे खड़े हैं ,
धरती पुत्र धरती गगन निहारता हैं ,
व्याकुल हो कर हे मेघ! पुकारता हैं ,
आँखें हुई बंज़र ,धड्काने थक गयी हैं ,
अधरों पर हँसी की सरिता रुक गयी हैं ,
बूढा था वो पहले ही, अब टूट ही  गया है,
बढ़ते हुए भारत में कृषक छूट ही गया है ,
लड़ रहा हैं वो आज पाने को सम्मान ,
खेतों में घुट रहा हैं हिंद का किसान ,
जिन्दगी से हार कर त्यागता हैं प्राण ...............

तुम्हारा --अनंत

बुधवार, अक्तूबर 12, 2011

लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए ,


                      लोकतंत्र में लोक कि इज्जत लूट-लाट कर ,ये सब नेता अब छैल-छबीले हो गए 
लोकतंत्र के सारे  तंत्र ढीले हो गए ,
राजनितिक दल नटों के कबीले हो गए ,
टेकते थे जो कल तक अंगूठा सरे आम ,
जीत कर संसद गए, कि रंग-रंगीले हो गए ,
लोक तंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए .........
क्या करें ऑप्शन कोई रीमेन नहीं हैं ,
चुनाव में अबकी कोई क्लीन नेम नहीं हैं ,
हर नेम पर दो चार मुकदमा चढ़ा है ,
कोई चोर,कोई डकैत, कोई आतंकवादी खड़ा है,
कल राजनीति की धरती पर जो वृक्ष लगे थे ,
आज वो सारे वृक्ष जहरीले हो गए ,
लोक तंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए .............
नेता गर ये हैं तो गाँधी और सुभाष क्या थे ,
संघर्षशील और जूझारू गर ये हैं तो भगत और आजाद क्या थे ,
ये A.C में रहने वाले गरीबों का खून पीते हैं ,
लोकतंत्र कि लाश चूस कर ये परजीवी जीते हैं ,
शर्म नहीं आती इनको ये बेशर्मो कि औलादें हैं ,
इनके हिस्से कि शर्म ओढ़ कर वोटर खुद शर्मीले हो गए ,
लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए ...........
संसद कि हद तोड़- ताड़ कर बन सियार चिल्लाते हैं ,
छीन-छान कर हक जनता का ,ये स्विस बैंक पहुंचाते हैं ,
शान तिरंगे कि धूमिल करके ,उसके नीचे जाम लड़ाते हैं ,
रोटी को जनता रोती हैं ,ये उसके आंसू पर मुस्काते हैं ,
लोकतंत्र में लोक कि इज्जत लूट-लाट कर ,
ये सब नेता अब छैल-छबीले हो गए 
लोकतंत्र के सारे तंत्र ढीले हो गए,
राजनीतिक दल नटों के कबीले हो गए ...........

तुम्हारा --अनंत