बुधवार, अप्रैल 17, 2019

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-4

जैसे अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है
और बोलने को कुछ नहीं
लिखना इस समय हो ही नहीं पाएगा

कसाई की दुकान में सूखे हुए ख़ून
और मेरे आंसूओं में कोई रिश्ता जरूर है
पहाड़ की जड़ों में मेरे किसी पूर्वज का दुख गड़ा है
और मेरे पैरों में तुम्हारी कोई बात
मैं जिस जगह हूँ वहाँ से बढ़ने की सोचता हूँ
और रात भर जागता हूँ

फिर ये कविता सरल हो रही है
इतनी जितना ये वाक्य कि
"मुझे उसकी याद आती है"
जैसे
"जीवन दुःख का दूसरा नाम है"
जैसे
"मुझे नींद नहीं आती"
जैसे
"एक दिन सब को मर जाना है"

बादलों से बरसता पानी, पानी नहीं पाती है
जिसे बाँचता हूँ मैं अपनी त्वचा से
ये किसी मजबूर आदमी के छत से कूद जाने जैसा कुछ है

नेलकटर से नाख़ून की जगह ज़िगर कुतरता मैं
रात से बात करता रहता हूँ
खीज़ कर चाँद पर फेंकता हूँ रस्सी
और लटक जाता हूं हर रात
कागज़ पर नींद के मरने, रात के गिरने
और ख़ुद के लटकने की रपट लिखता हूँ

कविता के आसपास की कोई चीज़ मेरे हाँथ में होती है
मेरी नींद रात के टीले पर रात भर रोती है।

अनुराग अनंत

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