बुधवार, अप्रैल 17, 2019

तो समझो फिर 'झुक गया देश' !!

उधर जिधर हत्यारे हैं
गर्व में तने गर्वित मस्तक हैं
चंदन से सुशोभित भाल है
तन पर मरे हुए सिंहों की खाल है
उधर इंसान नहीं
इंसानों के ख़िलाफ़ साजिशें है
उधर अगर 'झुक गया देश'
तो समझो फिर 'झुक गया देश'

अनुराग अनंत

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं !!

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।

अपराधों की सूची में
सबसे जघन्य अपराध था
"चाहत" से किसी कविता को शुरू करना
ये बात मैं जानता था
फिर भी मैंने 'चाहत' से कविता शुरू की
कि मैं चाहता था कि
मुझसे पूछा जाए
जब गर्मियों की किसी शाम मरी मेरी माँ
और पिता घर पर नहीं थे
तो मैं कहाँ था

मुझसे पूछा जाए कि प्यार जब तिल तिल कर मर रहा था
और उसने हल्के से रोते हुए कहा
कि चलो भाग चलते हैं
उस वक़्त मैं कहाँ था ?

मुझसे पूछा जाए जब लिखना था कुछ बेहद जरूरी
और मैं नहीं लिख सका
उस वक़्त मैं कहाँ था

मुझसे पूछा जाए
जब उतर जाना चाहिए था दिल के बहुत गहरे
और मैं नहीं उतरा
उस समय मैं कहाँ था

जब मेरी कलाइयों में हथकड़ी और मुंह पर नारे होने थे
उस वक़्त मैं कहाँ था

मैं कहाँ था ?
तब जब मुझे बढ़ कर शहीद हो जाना चाहिए था
या जब हवन हो जाना था मुझे
मैं कहाँ था ?
तब जब हर इंतज़ार का मुकम्मल जवाब देना था मुझे

मैं चाहता था
मुझसे हज़ार सवाल पूछे जाएं
पर दुःख और दर्द इसी बात का है
कि मुझसे महज़ एक सवाल पूछा गया
"चौरासी में कहां थे ?"

इस समय जब बहुत कुछ हासिल हो चुका है
ऐसा अख़बार, टीवी चैनल
और देश का राजा बोलता है
तो मैं अपनी हथेली देखता हूँ
जहां मुहावरे अश्लील हँसी हँस रहें हैं
हमारे इस स्वर्णिम समय का हासिल
महज़ चंद मुहावरे हैं
"मार कर लोया कर देंगे"
"ऐसा गायब करेंगे कि नज़ीब हो जाओगे"
"रोहित वेमुला बना दिये जाओगे"

मैं अपनी हथेली देखता हूँ
और फिर अपने समय और अपनी भाषा के विस्तार को देखता हूँ
सिमटी हुई भाषा और सिकुड़ा हुआ आदमी कितना विराट लगता है

इतना विराट की ढंग से न सवाल पूछता है
और ना पूछने देना चाहता है

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।

अनुराग अनंत

एक ग़लती फिर से हो गयी है !!

एक ग़लती फिर से हो गयी है !!

मेरी एक कविता खो गयी है
एक गठरी जिसमें
एक टुकड़ा दुख
एक टुकड़ा दर्द
एक टुकड़ा याद
एक टुकड़ा बात
एक टुकड़ा दिन
एक टुकड़ा रात
बांध दिए थे मैंने

कई दिन अलसाए अलसाए बिताए
रोते हुए, समय के ख़िलाफ़ लड़ते हुए
समय नष्ट करते हुए
अपने भीतर की बिखरन बुहारते हुए
कीमती, बेशकीमती और ग़ैरकीमती समान जलाते हुए
जब बीता समय का एक टुकड़ा
तब कहीं एक अदद कविता निकली
भीतर की बंजर ज़मीन से

वही कविता खो गयी है
एक ग़लती फिर से हो गयी है।

अनुराग अनंत

मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है !!

तुम चाँद के वक्र पर जान दे सकते हो
और चाँद का वक्र मेरी जान ले सकता है
क्या जान देना और जान लेना
एक जैसी बात ही है क्या ?
नहीं! क़तई नहीं
ठीक वैसे, जैसे
समंदर का पानी नमकीन होता है
और आंसू खारा

मेरा सब कुछ लिखना बर्बाद है
और तुम सोच भी लो यदि तो कविता हो जाए

दरअसल सारा खेल तुम्हारी आँखों में है
तुम कालीदास की तरह बादलों को देखते हो
और बादल मेघदूत हो जाते हैं
और मैं किसानों की तरह बादल को देखता हूँ
और बादल मुंह बिचकाते हैं।

तुम समय निकाल कर फ़िल्म देखने चले जाते हो
और मैं समय के निकल जाने पर पछताता हूँ।
चाँद तुम्हारे छत पर चढ़ कर ईद हो जाता है
और चाँद मेरी छत पर चढ़ता है और कूद कर जान दे देता है

मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है।

अनुराग अनंत

इसके अलावा बाकी सब मस्त है !!

वो जब मुझमें उतरती है
मैं नदी की तरह बहता हूँ
वो नाव की तरह तिरती है

मैं नींव की तरह दबता हूँ
वो पुरानी इमारत की तरह गिरती है
डरना उसके लिए खाना खाने जितना जरूरी है
वो दिन में तीन बार नियम से डरती है
इस तरह आप अंदाज़ लगा सकते हैं
कि एक बार जीने के लिए वो कितने बार मरती है

और हां एक बात और....

जिनके लिए दुख का मतलब
ग्लिसरीन वाले आँसू हैं
उनकी फैक्ट्री में आजकल
समय के सांचे गढ़े जा रहे हैं
इसीलिए संवेदना के चित्र
सुनहले फ़ोटो फ्रेमों में मढ़े जा रहे हैं
लोग संवेदना के मरने पर दुखी हैं
और अपने अपने लिए ग्लिसरीन का इंतजाम करने में व्यस्त हैं

इसके अलावा बाकी सब मस्त है
चल यार फिर कभी बात करता हूँ

अनुराग अनंत

"ईश्वर" गिर कर मर गया...!!

उस रात का सपना ऐसा था जिसने दिन की हक़ीक़त बदल दी। अब मैं माँ को याद करता था तो उसके पल्लू में बंधे सिक्के याद आते थे। उसकी देर रात लगाई गई खाने की थाली, उसके गाल में पिता के थप्पड़ के निशान और उसकी चिता याद आती थी। मेरी माँ टुकड़ों में बंट गई थी। पिता साबूत पत्थर की तरह थे जिसपे जब तब मैं सर दे मारता था। तुम जो कभी झरने की तरह लगती थी अब रेत लगने लगी थी। मैं शीशे में खुद को देखता था तो एक तड़पती हुई मछली दिखती थी या अंधेरे में सिसकती हुई बच्ची। सब कुछ बदल गया था। आदमी सड़क पर चलते चलते भाप की तरह उड़ जाते थे और मशीनें राजाओं की तरह आदेश देतीं थीं। सारी समस्या का हल था मेरे पास था। जिसे लोग नींद की गोलियां कहते थे और मैं जिंदगी का दूसरा नाम। मेरे ज़हन में हमेशा बर्फ़ गिरती रहती थी। और एक तेज़ रफ़्तार गाड़ी गुजरती और एक बच्चा सड़क पार करने की फ़िराक़ में दब कर मर जाता था। इस तरह जितनी बार मैं सुकून से बैठता उतनी बार एक बच्चे की मौत हो जाती थी। उस रात सपने में मैंने देखा कि गली की सबसे बुजुर्ग बुढ़िया ने सारी जिंदगी की कमाई से जो घर बनाया था जिसका नाम उसने "नज़र" रखा था। उसकी छत से उसका पागल बेटा "ईश्वर" गिर कर मर गया। लोगों ने कहा "बुढ़िया की नज़र से ईश्वर गिर कर मर गया। मेरे साथ जो हुआ था उसका क्या नाम है, उसे क्या कहा जायेगा। ये लोगों को तय करना था। किसी दिन समय निकाल कर वो लोग ये भी तय कर देंगे शायद।


अनुराग अनंत 

डरो मत !!

'ड' से डरो मत

'र' से रास्ते हमेशा मौजूद होते हैं, बस उन्हें खोजना होता है।

'म' से मौत को सत्य कहने वाले लोग झूठे, भटके और असफल व्यक्ति हैं। मौत कुछ नहीं होती।

'त' से तभी जिया जा सकता है जब मृत्यू का भय ना हो, और जीवन का लोभ भी।

और इतनी बात का कुल जमा ये कि

डरो मत !!

क्योंकि विकल्पहीन व्यक्ति के पास डरने का विकल्प नहीं होता।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-12

मैंने अपनी नींद तुम्हारी आँखों के नाम कर दी
और तुम्हारी आँखों में दुहरी नींद तैरती रही
दोगुना नशा
दोगुनी मादकता
चंचलता कितनी गुनी थी, पता नहीं !
पर इतना मालूम है
तुम्हारी आंख वो मिथकीय तालाब है
जिसमें झाँकते ही डूबकर मर जाने का मन करता है

तुम्हारी आँखों में ना जाने कितने डूब कर मरे होंगे
तुम्हारी आँखों में ना जाने कितनों की नींद बहती है
तुम्हारी आंखें ना जाने क्या कहतीं हैं।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-11

तुम्हारी याद किसी भेड़िये की तरह
उलझन की झाड़ियों से कूद कर वार करती है ज़िगर पर
और मैं रिसते हुए लहू की लकीर बनाते हुए
रेंग कर नींद तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ
पीछे पीछे तुम्हारी याद मेरे पस्त होने के इंतज़ार में
लहू की लीक पर, ख़ून सूंघते हुए मुझतक पहुँचती है
और नींद तक पहुँचने से पहले ही मेरा शिकार कर लेती है

आंखों से भाप की तरह उठती रहती है कराह
और आंखों के नीचे स्याही सी जमा होती रहती है मेरी पीड़ा
देखने वाले देखते हैं और पूछते हैं
"कल फिर तुम सारी रात नहीं सोए ना ?"

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-10

मैंने सुना है लगातार जागने से आदमी पागल हो जाता है
सुना ये भी है कि पागल आदमी लगातार जगता रहता है
और बहुत याद करता हूँ तो ये भी याद आता है
कि उसने एक बार कहा था
जीने के लिए पागलपन ज़रूरी है
और पागलपन के लिए जागना

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-9

एक बेचैन पागल की टूटी चप्पल
एक अनाम कवि का मटमैला झोला
एक प्रेमी की अनकही बात
एक आवारा लड़की की अंगड़ाई
एक सुहागन की रख कर भूली हुई कोई चीज़
एक बूढ़े की कंठ से फूटती मौत की मनुहार
एक माँ की पनीली आंखें
और एक उजाड़ मंदिर की भग्न देवी प्रतिमा
मेरी रातों में काटें बिछाती फिरतीं हैं
मेरी नींदें इन्हीं से टकरा कर गिरतीं हैं

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-8

मेरी नियति जागते रहना है
मेरी किस्मत भागते रहना है
मेरी मेरुदंड पर उग आया है पहाड़
सोने के लिए लेटना चाहता हूँ तो लेट नहीं सकता
मेरी आँखों में छीपा रोता रहता है कोई
धड़कनें बनातीं रहतीं है खाइयाँ
बदहवास दौड़ कर आता है कोई
और सतह पर आख़री बुलबुले के साथ ही
वो भी खो जाता है कहीं
यही क्रिया दोहराई जाती है रात भर
अपने ही ज़िगर को खोदता हूँ
अपनी ही आत्मा में कूदता हूँ
मुंडेर पर ढेर होता रहता हूँ
सड़कों पर देर रात कुत्तों से बच कर टहलता हूँ
दूर चौराहे तक जाता हूँ
एक सिगरेट, एक चाय पी कर आता हूँ
मानों यही करने के लिए लिया हो जन्म
मानो ये ना किया तो मर जाऊंगा

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-7

नींद की नौ कविता

1.
तुम ख़्वाब की शक़्ल में
मेरी नींद की जासूसी करती हो।
इसलिए रात भर जाग कर मैं अपनी नींद
आंखों के नीचे की स्याही, चेहरों की झुर्रियों और अपनी खीज़ में छुपा देता हूँ।

2.
जागता हुआ आदमी
ट्रेडमील पर भगता हुआ आदमी होता है

3.
जब रात नहीं कटती
तो घटनाएं घटती हैं।
घटने को तो ये भी घटना घट सकती थी
मेरी कलाई की नस कट सकती थी।

4.
अधूरी बात की तरह गुज़री पूरी रात
बह भी गयी, रह भी गयी।

5.
रात भर नींद की अदालत में मुक़दमा चलता है
मैं सारी रात कठघरे में खड़ा रहता हूँ।
"मैं सोना चाहता हूँ"
रोते हुए नींद से कहता हूँ।

6.
तुम्हारा ख़याल नुमाया होता है
और नींद ग़ायब हो जाती है
"तुम्हारा ख़याल" नींद का दुश्मन है
"नींद" तुम्हारे ख़याल की मारी।

7.
ढाई कदम की रात थी
और ढाई अक्षर का तेरा नाम
कल सारी रात तेरा नाम लेने में कट गई।

8.
मेरी नींद घायल है
रेंग कर मुझ तक आती है
और तब तक सुबह हो जाती है।

9.
कल रात फिर सारी रात याद करता रहा
कल रात फिर नींद का नाम याद नहीं आया।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-6

रात वो पुड़िया है
जिसमें जंग लगे पुराने ब्लेड के टुकड़े लपेटे गए हैं
जहाँ कटी उंगली का दर्द कैद है
जहाँ घाव में डालने के लिए ज़रूरी नामक सहेजा गया है

नींद वो अभागी भिखारन है
जो दिन भर भीख मांग कर रात को भूखी सो जाती है
नींद वो बच्ची है जो हर बार मेले में खो जाती है

और मैं वो बात हूँ
जो पूरी होने से पहले काट दी जाती है
मैं वो आंख हूँ
जो काँच की किरचों से पाट दी जाती है

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-5

चाँद पर जितने भी दाग़ हैं
वो सभी मेरे अधूरे प्रेम के किस्से हैं
और आसामन में जितने तारे हैं
वो सब वो अभागी जगहें हैं
जहाँ मैंने अपनी प्रेमिकाओं को चूमा था
या चूमते चूमते रह गया था
जहाँ हाँथ थाम कर उसका
मैं जुगनू या दीपक हो गया था
जहाँ झरने की तरह बह था मैं
या पुखराज की तरह पत्थर हो गया था

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-4

जैसे अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है
और बोलने को कुछ नहीं
लिखना इस समय हो ही नहीं पाएगा

कसाई की दुकान में सूखे हुए ख़ून
और मेरे आंसूओं में कोई रिश्ता जरूर है
पहाड़ की जड़ों में मेरे किसी पूर्वज का दुख गड़ा है
और मेरे पैरों में तुम्हारी कोई बात
मैं जिस जगह हूँ वहाँ से बढ़ने की सोचता हूँ
और रात भर जागता हूँ

फिर ये कविता सरल हो रही है
इतनी जितना ये वाक्य कि
"मुझे उसकी याद आती है"
जैसे
"जीवन दुःख का दूसरा नाम है"
जैसे
"मुझे नींद नहीं आती"
जैसे
"एक दिन सब को मर जाना है"

बादलों से बरसता पानी, पानी नहीं पाती है
जिसे बाँचता हूँ मैं अपनी त्वचा से
ये किसी मजबूर आदमी के छत से कूद जाने जैसा कुछ है

नेलकटर से नाख़ून की जगह ज़िगर कुतरता मैं
रात से बात करता रहता हूँ
खीज़ कर चाँद पर फेंकता हूँ रस्सी
और लटक जाता हूं हर रात
कागज़ पर नींद के मरने, रात के गिरने
और ख़ुद के लटकने की रपट लिखता हूँ

कविता के आसपास की कोई चीज़ मेरे हाँथ में होती है
मेरी नींद रात के टीले पर रात भर रोती है।

अनुराग अनंत

मंगलवार, अप्रैल 16, 2019

नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-3

तुम हिचकी की तरह आई थी
और किसी दर्द की तरह गई

जाने से कहाँ कोई जाता है
उसका कुछ ना कुछ रह ही जाता है
जैसे मेरी दादी की छड़ी रह गई
और तुम्हारी अनकही बात

खेत में बीज रोपते वक़्त
या किसी ढलान से उतरते हुए
तुम्हारी बहुत याद आती है
मेरा हमशक्ल दीपक के नीचे
अंधेरे की शक्ल में रहता है

ईश्वर जरूर हरी घास के मैदान में बैठा
कोई उदास निठल्ला आदमी है
वो जब जब घांस नोचता है
ज़िगर तक जाने वाली मेरी नसों में खिंचाव उठता है
किसी दिन जब मैं हृदयाघात से मरूँगा जान लेना
ईश्वर की नौकरी लग गई है
और उसने अपने आसपास की सारी घास नोच दी है

रात के तीन बजे जब रात जा चुकी है
दिन आ रहा है
मैं बीच में खड़ा हूँ
किसी एक्सीडेंट के इंतज़ार में
कि नींद की कोई गाड़ी
150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आये
और मुझसे टकरा जाए
मैं जियूँ या मरूँ
कम्बख़त मुझे नींद तो आए।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-2

जब उंगलियों पर गिनते हुए मैं आठवें पोर पर पहुँचा
रात के रोंओं में आग भभक उठी

तुम्हारे बिखरे और ढीले वाक्यों से झरे अक्षरों ने एक शब्द रचा
जिसका अर्थ ईशा मसीह के सिर पर ठोंकी गई कील सा था

मैंने सलीके से अपनी सलीब उठाई
और नींद ने आख़री सांस ली
सजा सुनने के बाद अपराधी ने अपने खाली जेब में हाँथ डाल कर
ख़ुद को अपने खालीपन में भर लिया
जो काम सृष्टि के पहले दिन से टालता रहा मैं
उस रात आख़िर कर लिया

आखरी बार जब पूछी गयी मेरी इच्छा
तो मेरे साथ उस स्त्री ने भी कहा
हमें रेखाओं को अनदेखा करने दिया जाए
कोई ना बचाए हमें
हमें जीवन की तलाश में मरने दिया जाए

ये बात जो कविता में दर्ज़ हुई है
मेरे किसी जागृत स्वप्न से छिटक कर गिर गई है

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-1

स्वप्न मेरा संस्कार था
मैंने जागते हुए स्वप्न देखे
ये रात का अपमान था
और नींद पर लानत

रात ने श्रापा मुझे
और नींद ने धिक्कार दिया

मैं जागते हुए बरसात की रातों को रोता रहा
लोग चिंतित थे
कि पिछवाड़े बहती नदी दिन-ब-दिन खारी क्यों होती जा रही है

सातों समंदर सप्त प्रेमियों के तप्त अश्रु हैं
जो उनकी आत्मा के गड्ढ़ों में एकत्र हुआ
बरसात की रोती रातों में

तुम्हारा स्पर्श हथेलियों पर
भूखे भिखारी की तरह हाय हाय करता रहा
और तुम्हारे घर से दस कदम की दूरी पर
पान की दुकान में एक घायल इंतज़ार तिल तिल कर मरता रहा

ये बिखरे तंतुओं की तरह बिखरी बातें
रात भर जोड़ता रहता हूँ
मेरे भीतर उग आए पहाड़ पर
जागते हुए पत्थर तोड़ता रहता हूँ

जिस रात मैं पत्थर से पानी हो सकूँगा
बस उसी रात फिर से सो सकूँगा

अनुराग अनंत

लिफाफों का दुःख !!

लिफाफों का दुःख
चिठ्ठियों के दुःख से कभी कम नहीं रहा
डाकिए दो दुःखों के बीच पुल बनाते रहे सदा
और गांव की सरहद पर बैठा देवता
एक हज़ार साल पहले किसी के प्रेम में फांसी पर लटक गया था

मेरे पास तुम्हारी दो ही चीजें थीं
एक तुम्हारी स्मृति
और दूसरी तुम्हारी स्मृति की स्मृति
याद और याद की याद

ये ऐसे ही रहा जैसे
दुःख के भीतर दुःख
लिफ़ाफ़े के भीतर चिट्ठी
डाकिए के भीतर पुल
और सरहद पर बैठे देवता के भीतर प्रेमी

अनुराग अनंत

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था !!

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था
तुमनें नयनों में अश्रु दिए थे/ पर मैंने तो सावन मांगा था

तुमनें स्वर्णिम स्वप्न दिखाए 
और स्मृतियों को दिया सहारा
मैं उलझी भटकी नदिया न्यारी
तुमनें मुझको दिया किनारा
मैं हिय मंदिर में रहने वाला
निर्वासित कुलदेव बेचारा
हाँ सच है मैं डूब रहा था
तुमनें मुझको पुनः उबारा

तुमने जग दे डाला मुझको
पर मैंने घर आंगन माँगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था।

जग में जितने दग्द हृदय हैं
सब मंदिर, सब देवालय हैं
पीड़ाओं के शत सिंधु यहां हैं
खंडित हिय के हिमालय हैं
मैं पीड़ाओं का साधक हूँ
तुममें पीड़ाओं के शिवालय हैं।

मैंने उसी पावन पीड़ित मन का
एक पवित्र आलिंगन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

जैसे निद्रा में स्वप्न जागता
वैसे तुम मुझमें जागी थी
तुम प्रेम समर्पण की साधक थी
तुम अनंत अनुरागी थी
नयन तुम्हारे मारक मोहक
तुमने नयनों में पीड़ाएं पागीं थीं

मैंने तुम्हारे निशब्द नयनों का
गंगाजल पावन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

अनुराग अनंत

आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों !!

दिमाग़ में कई गालियाँ थीं। और दिल में एक बरजोर नदी। दिमाग़ गलियों में उलझ जाता था। वो धुंध के पार जो है उसे देखने को कहता था। दिल मानता ही नहीं था। कहता था, "मंजिल तक जाए बिना रुक नहीं सकता, जो पहाड़ी, रोड़े, ईंट, पत्थर आएंगे, वो मेरे वेग का शिकार होंगे"।

एक रात जब दिल अंधे मोड़ से टकरा कर उससे रास्ता तराश रहा था। दिमाग़ ने दिल के कंधे पर हाँथ रख कर कहा कि तुम जिसे मंज़िल मानते हो वो किसी और रास्ते पर है। तुम जितनी दूर उसके पीछे चलोगे। वो उतनी ही आगे उस रास्ते पर निकल जाएगा। या फिर किसी और रास्ते पर।

दिल अब दिमाग़ से लिपट चुका था। आँसू आंखों से बाहर आ कर इस विस्फोट के साक्षी हो रहे थे। यही कोई रात के तीन बजे होंगे। दिमाग़ ख़ामोश था। उसने अपनी बात इतनी बार दोहराई थी कि उसे अब कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दिल बैठा कुछ गुनगुना रहा था। हाँथ में उसके स्वाद बदलने वाली सिगरेट थी और आंखों में सूनापन। दिल हार नहीं मानता। उस रात भी नहीं माना। लेकिन अब वो पहले सा बेसब्र नहीं था। दिमाग़ ने कहा चलो क्या यही कम है कि थोड़ा संभले तो तुम। दोनों खिलखिला के हँसे। सूरज आसमान पर उगा और रात भर इंतज़ार करती नींद ने शिक़ायत की, "आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों"

अनुराग अनंत

मैं कविता की आग में जल मरूंगा !!

सुनों !
मुझे जलने की धुन सवार है
जैसे सवार थी उस बौद्ध भिछुक पर
जो चाइना मुर्दाबाद करते हुए जल गया
या फिर उस स्टूडेंट की तरह
जो तेलंगाना जिन्दाबाद करते हुए मर गया

मेरे हांथो में पत्थर है
और सीने में गोली
मुझे मारने में तुम्हे मुश्किल से दो मिनट लगे
पर खत्म करने में सदियाँ कम पड़ेंगी

मैं आवाजों के घेरे में घिरे हुए आदमियों की आवाजों से घिरा हूँ
मेरी चिंता में काली तस्वीरें है
और खून में लिथड़ा एक अँधेरा रो रहा है

तुम्हारी चिंता में सुनहरे पंख और मरमरी बदन हैं
सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना और शाम का भोजन है
फ़िल्में, गाने, चुटकुले, प्यार की अफवाहें और अश्लील हंसी तुम्हारे चारो तरफ पसरी है
और मेरे चारो तरफ है नारे और खामोश घुटन, सन्नाटा और शोर

एक आग है, एक नंगी आग है मेरे चारो तरफ
जिसमे मैं जल मरूंगा
सुनो!
मैं जल मरूंगा
जैसे जले हैं मुझ जैसे ही कई

मेरे जलने की दुपहर तुम कहना
गर्मी कितनी ज्यादा है, अबकी सर्दी बहुत ज्यादा पड़ेगी
थोड़ी सी जम्हाई आएगी तुन्हें
और तुम कहोगे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता
भ्रष्टाचार इस देश को डूबा देगा

तुम चिंता करना कि
सचिन सौ सेंचुरी मार पायेगा कि नहीं ?
सलमान शादी करेगा कि नहीं ?
तुम भगवान से मनाना
शाहरुख खान कभी बूढा न हो
अमिताभ बच्चन कभी न मरे
राखी सावंत पर तुम चर्चा करना
और निष्कर्ष निकलना कि वो चरित्रहीन है
तुम बेवजह हंसना और रोना
फिर भूल जाना कि आज तुमने क्या कहा था
आज क्या हुआ था या किया था
ताकि तुम कल फिर वही बातें कह सको
तुम कल फिर वही काम कर सको

और मुझे कल फिर जलना पड़े

सुनो!
मुझे जलने की धुन सवार है
मैं कविता की आग में जल मरूंगा

अनुराग अनंत