शनिवार, सितंबर 29, 2012

झोंको से झुक जाते हैं.....गज़ल

इस भीड़ में चल चल कर लोग थक जाते है,
उन्हें पता भी नहीं चलता और वो बिक जाते हैं,
झुकने का चलन कुछ इस कदर से चल निकला है यार,
कि जो तूफानों में नहीं झुकते थे, अब झोंको में झुक जाते हैं,
कोई मजलूम कुछ बोले, तो उन्हें बदतमीज़ी  लगती है,
वो दौलत के नशे में, जो मुंह में आए बक जाते हैं,
संभल कर चलते हैं, लोग राह-ए-खार पर ''अनंत''
पर जब पैरों तले गुल पड़ते है तो बहक जाते हैं,
डर लगता हैं हमें अय्यारों की इस बस्ती में,
यहाँ खुली बाहों के चमन, कफ़स में बदल जाते हैं,
कुर्सी के आशिकों ने तुर्फ़ा  तरीके तलाशे खूब,
कभी हिन्दू के घर जलते है, कभी मुस्लिम के घर जल जाते हैं,
कोई मिले यहाँ जो  समझदार-ओ-वफादार मुझको,
मैं पूछूं, जो बरसते हैं समन्दरों पर, कैसे रेगिस्तान पर चुक जाते हैं,

तुम्हारा--अनंत 

शुक्रवार, सितंबर 28, 2012

मैं इंसान हूँ,......ग़ज़ल

ये आँखों का अश्क नहीं पागल,
ये मेरे दिल का दर्द बहता है,
बताते है ये अश्क, कि मैं इंसान हूँ,
वरना कहाँ कोई पत्थर कभी रोता है,
मशीन बना दिया आदमी की भूंख ने उसे,
वो देखो आदमी-आदमी का बोझ ढोता है,
क्यों बेघर है राजगीर, जुलाहा क्यों नंगा है,
आखिर क्यों किसान भूखा पेट सोता है,
हंसता है क्यों ये ऊंचा महल झोपड़ी पर,
आखिर झोपडी का भी अपना कोई वज़ूद होता है,
चल साथ मेरे साथी, हम मिल कर लड़ेंगे,
क्यों बेसबब अश्कों से, अपना दामन भिगोता है,

तुम्हारा- अनन्त 

गुरुवार, सितंबर 20, 2012

भरम का चराग ................

बहते हुए पानी में भरम का चराग था. 
बेदाग़ समझ बैठा जिसे, उसके दामन में दाग था,
ज़िन्दगी अपनी सौंपी थी, जिसे मोहब्बत के नाम पर,
जालिम था, वो जुल्मी था, बड़ा ज़ल्लाद था,
हम जिसे इश्क समझ कर फ़साना बुनते रहे, 
वो तो उसके  लिए बस एक अदना  मजाक था,
मेरा दिल कुछ भी नहीं था उसके  लिए,
राह पर पड़ा बस  इक ढेर-ए-ख़ाक था,
आँखों से बह कर सूख गया जो गालों की रेत पर,
वो कोई कतरा-ए- अश्क नहीं था, मेरा ख्वाब था,
मिल कर उससे वो लज्जत न मिली, मिलने की,
ये दिल बेवजह उससे  मिलने को बेताब था,
जला दिया जिसने मुझे और मेरे अरमानों को,
वो हुस्न का एक बहता हुआ दरिया-ए-तेज़ाब था,

तुम्हारा--अनंत 


बुधवार, सितंबर 19, 2012

खुद को लूट जाता हूँ......गज़ल

मैं गहरे से गहरे समंदर की गहराई नाप लेता हूँ,
पर न जाने क्यों तेरी आँखों में अक्सर डूब जाता हूँ,
तेरे संग  मुझे हर सांस रंगीन लगती है,
तेरे बिना मैं सांस लेने में भी ऊब जाता हूँ,
मिलता हूँ जब तुझसे जिंदा हो जाता हूँ,
तेरे बिछड़ते ही लावारिश लाश सा छूट जाता हूँ,
मुझे आहिस्ते से छू, यूं धक्का न मार यार, 
जरा से धक्के से मैं कांच सा टूट जाता हूँ,
दर्द बढ़ जाता है, जब-जब रोने को दिल करता है,
बन कर ग़ज़ल कागज़ पर फूट जाता हूँ,
निकलता हूँ मैं तनहा रातों में वारदात करने को,
डालता हूँ खुद के घर डाका, खुद को लूट जाता हूँ,
मिलती नहीं है छांव किसी ठांव अब ''अनंत''
छांव के घर भी जाता हूँ, तो धुप  पाता हूँ,

तुम्हारा--अनन्त