सोमवार, मार्च 26, 2012

भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो.....

भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,
ठीक निराला के कुकुरमुत्ता की तरह,
तुम उग आते हो वहां भी,
जहाँ संभावनाओं की संभावनाएं भी दम तोड़ देती है,
जहाँ आशाओं का हलक सूखने लगता है,
उम्मीद के जन्नांगों में पत्थर डाल दिए जाते है,
उत्साह के कोख में,
निराशा की नाजायज औलाद ठूंस दी जाती है,
जहाँ चरित्र का सूरज पिघल कर,
विस्की, रम और बियर हो जाता है,
जहाँ राष्ट्र का हीरो,
बन जाता है सेल्समैन,
और बेचता है कोंडोम से ले कर विस्वास तक,
सबकुछ.........
तुम वहां भी उग आते है,


किसी हारे हुए की आखरी हार से पहले,
किसी भूखे आदमी की आखरी आह! से पहले,
किसी ख़ामोशी के एकदम खामोश हो जाने से पहले,
तुम उग आते हो,
भगत सिंह तुम  बड़े बेहया हो,

कितनी बार चढ़ाया है तुम्हे फांसी पर,
बरसाई हैं लाठियाँ,
सुनाई है सज़ा,
जलाई है बस्तियां,
तुम्हारे अपनों की....
कितनी बार भड़काए गए  हैं,
दंगे,
तुम्हारे गाँव में,
कस्बों में,
शहरों में,
कितनी बार काटा गया है तुहारा अंगूठा,
चुना है तुमने ही,
शोषण के लिए,
कितनी बार अवसाद की अँधेरी कोठरी में,
की है तुमने आत्महत्या,

भगत सिंह न जाने कितनी बार,
न जाने कितने तरीकों से,
तोड़ा मरोड़ा गया है तुम्हे,
पर तुम उग आते हो,

किसी मजदूर के हांथों के ज़ख्म भरने से पहले,
किसी निर्दोष के  आंसू सूखने से पहले,
किसी जलती हुई झोपडी की राख़ बुझने से पहले,
किसी बेदम इंसान का लोकतंत्र पर से विस्वास उठने से पहले,
तुम उग आते हो,
भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,

बेहया लोग ख़तरनाक़ होते हैं,
हया इंसान हो डरपोक और दोगला बना देती है,
तुम्हारे सपने मरे नहीं है,
इसलिए तुम बेहया हो,
औए शायद इसीलिए ख़तरनाक़ भी,

सीलन वाली अलमारी पर,
सबसे किनारे रखी,
सबसे कम कीमत की,
सबसे रद्दी कॉपी पर,
तुम उग आये हो,

मजदूरों के कंकाल,
किसानों की लाश,
और जवानों के गुस्से पर,
लिखी गयी कविता,
में तुम उग आये हो,
भगत सिंह तुम बड़े बेहया हो,

भगत सिंह--तुम्हारा--अनंत 

7 टिप्‍पणियां:

दीपिका रानी ने कहा…

क्या बात है अनंतजी.. बहुत डूब कर लिखी गई कविता है यह। पिछले कुछ दिनों से भगतसिंह पर बहुत सी कविताएं पढ़ीं, आश्चर्यजनक रूप से सभी बहुत अच्छी थीं। अब उनमें आपकी यह कविता भी जुड़ गई है। उम्मीद करते हैं कि हर कोई भगत सिंह की तरह बेहया हो, तभी इस देश में फिर कोई क्रांति आ पाएगी...

mudda ने कहा…

bahut achha anurag

mudda ने कहा…

bahut achha anurag

दिगम्बर नासवा ने कहा…

उफ़ ... ये कविता है या आंदोलन ... मुखर आक्रोश या दर्द की लहर ... जबरदस्त ... बहुत ही गहरी सोच और आज के माहोल से उपजी अकुलाहट से जन्मी रचना है ...

रविकर ने कहा…

बहुत अच्छे भाई |
अपनी एक रचना टिप्पणी में डाल रहा हूँ |

पंजाब एवं बंग आगे, कट चुके हैं अंग आगे|
लड़े बहुतै जंग आगे, और होंगे तंग आगे|
हर गली तो बंद आगे, बोलिए, है क्या उपाय ??
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

सर्दियाँ ढलती हुई हैं, चोटियाँ गलती हुई हैं |
गर्मियां बढती हुई हैं, वादियाँ जलती हुई हैं |
गोलियां चलती हुई हैं, हर तरफ आतंक छाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

सब दिशाएँ लड़ रही हैं, मूर्खताएं बढ़ रही हैं |

नियत नीति को बिगाड़े, भ्रष्टता भी समय ताड़े |
विषमतायें नित उभारे, खेत को ही मेड खाए |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

मंदिरों में मकड़ जाला, हर पुजारी चतुर लाला |
भक्त की बुद्धि पे ताला, *गौर बनता दान काला | *सोना
जापते रुद्राक्ष माला, बस पराया माल आए--
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !



हम फिरंगी से लड़े थे , नजरबंदी से लड़े थे |
बालिकाएं मिट रही हैं , गली-घर में लुट रही हैं |
होलिका बचकर निकलती, जान से प्रह्लाद जाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !



बेबस, गरीबी रो रही है, भूख, प्यासी सो रही है |
युवा पहले से पढ़ा पर , ज्ञान माथे पर चढ़ाकर |
वर्ग खुद आगे बढ़ा पर , खो चुका संवेदनाएं |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

है दोस्तों से यूँ घिरा, न पा सका उलझा सिरा |
पी रहा वो मस्त मदिरा, यादकर के सिर-फिरा |
गिर गया कहकर गिरा, भाड़ में ये देश जाए|
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !


त्याग जीवन के सुखों को, भूल माता के दुखों को |
प्रेम-यौवन से बिमुख हो, मातृभू हो स्वतन्त्र-सुख हो |
क्रान्ति की लौ थे जलाए, गीत आजादी के गाये |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !

बेनामी ने कहा…

kavitaa hai ya angaar ...


Unknown ने कहा…

बहुत खूब अग्निपथ के रही ऐसे ही चलते रहना, आगे बढ़ते रहना