रविवार, नवंबर 13, 2011

भारतीय नारी .....

हाय !वो अभागी भारतीय नारी .....
आँखों में आँसू दिल में दर्द ,
जिसे मिला न कोई हमदर्द ,
पाई जिसने कदम-कदम पर लाचारी ,
हाय !वो अभागी भारतीय नारी ,
आँचल में छिपी ममता ,
बेबसी चेहरे पर तेरी ,
बहती रही  जो गंगा बन ,
न किसी ठावँ ठहरी ,
किसी ने पाप धोया ,
तो किसी ने गन्दगी ,
तो कभी जमाने ने कराई खुद की बन्दगी ,
कभी बेचीं गयी,कभी नोची गयी ,
कभी जला दी गयी बेचारी, 
हाय !वो अभागी भारतीय नारी ,

तुम्हारा --अनंत 

सोमवार, नवंबर 07, 2011

मैं आवारा शायर ,

इंसान कहाँ समझती है दुनिया गरीबों को ..............





















मैं आवारा शायर ,फिरूँ मारा-मारा ,
इसे देखता ,उसे देखता ,
खुशियों को खाता,ग़मों को चखता ,
छूता समझता जहाँ का नज़ारा ,
मैं आवारा शायर फिरूँ मारा-मारा..........

वो झुनिया की इज्जत ,लोला की लाज ,
बसंती के रूप को देखे समाज ,
सौ के पत्ते पर उनको लेटे मैंने देखा , 
सभ्य को असभ्य बनते हुए देखा ,
मैं चिल्लाया पर सोता रहा संसार सारा ,
मैं आवारा शायर फिरूँ मारा-मारा..........

मालिक राजू को पीटे, धर बाँह घसीटे ,
पाँच साल का राजू, है बनिया का बियाजू ,
गाल आंसू के धब्बे ,फिर भी आँख उसकी चमके ,
वो कीताबों से दूर, है महेनत में चूर ,
हिन्दुस्तान के भविष्य को कूड़े से खाना बीनते देखा ,
जिन्दगी जीने के लिए  बचपन को मरते देखा ,
अब राजू क्या जाने बाल श्रम अधिनियम बेचारा ,
मैं आवारा शयर फिरून मारा-मारा ............



                                                         तुम्हारा --अनंत 

हिंदुस्तान में गरीबों की हालत जो है वो है ही पर उस पर जो सबसे  ज्यादा असहनीय और दारुण है वो है बच्चों और महिलाओं की हालत ,जब घर के मर्द नशे में धुत हो कर कहीं नाली में पड़े रहते है या फिर जब उनकी कमाई से घर के सभी लोगों की पेट की आग नहीं बुझती तब मजबूर हो कर महिलाओं को जिस्म फरोसी और बच्चों को मजदूरी करनी पड़ती है ...........

                           

गुरुवार, नवंबर 03, 2011

वो मुझको सताता है .....!!

जनकवि विद्रोही जी ............


वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है 
जो नहीं देखना चाहता वही दिखता है
कितना बेदर्द है वो ऊपर  वाला मदारी
थक चुका हूँ मैं,  फिर भी मुझको नचाता है
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........

खाना नहीं वो मुझको ग़म खिलाता है 
पानी नहीं वो मुझको आंसू पिलाता है 
जब कभी मन मार कर मैं सो जाता हूँ
मार  कर थप्पड़ वो मुझको जगाता ह,
वक़्त बेवत वो मुझको सताता है.........

मुझे यकीं था वो  मेरी इज्ज़त  बचा लेगा 
जब कभी मैं गिरूंगा वो मुझको उठा लेगा
पर ग़लत था मैं, ग़लत थी ये सोच मेरी 
सरेआम, भरे बाज़ार वो मेरी इज्ज़त लुटता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको  सताता है ............

जब थामी कलम मैंने और कलमकार बन गया ,
बस उसी दिन उसकी नज़र में गुनहगार बन गया ,
निराला,मुक्तिबोध बनने की वो कीमत माँगता है,
गरीबी से जुझाता  है, भूंख से तड़पाता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........

महफ़िलों में अक्सर दिल का दर्द कहता हूँ ,
कविता में आँखों से आंसूं बन कर बहता हूँ 
मरी हुई हसरतों,अरमानों  की लाश पर  ,
ये खुदगर्ज जमाना  ताली बजाता  है,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है.........

 तुम्हारा --अनंत  



महाकवि निराला जी..............

जनकवि रमाशंकर ''विद्रोही'' और महाकवि निराला को  मेरी ये कविता आदर भाव से समर्पित | ये दोनों ऐसे कवि है जिन्होंने कविता लिखने के साथ-साथ  कविता को जिया भी | ये दोनों कवि मेरे लिए आदर्श  का श्रोत है | निराला जी  और विद्रिही जी ने ये सिखाया है कि कैसे जीवन को अपनी शर्त पर जिया जाता है फिर इसके लिए चाहे जो कीमत देनी पड़े , मैं इनदोनों को जब भी याद करता हूँ तो मुझे मुक्तिबोध की पंक्तियाँ ''अभिवयक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे''याद आ जाती है | सच में इन सब कवियों ने वास्तव में अभिव्यक्ति के खतरे उठाये है ,विद्रोही जी आज भी JNU  की सड़कों पर फक्कड़ों की तरह जनता की आवाज़ में,जनता की तरह फटे कपड़ों, मैले कुचैले वेश मेंअपनी पूरी सामाजिक,राजनीतिक ,
औरआर्थिक चेतना  से सृजित कविता ,
करते हुए मिल जायेंगे ,मेरा  उन सभी जनता के कवियों के जीवन संघर्ष को नमन जिन्होंने अभिव्यक्ति के खतरे उठाए है और जो लगातार उठा रहे है उन्हें भी सलाम .....और मेरी ये कविता उन सबको समर्पित |

तुम्हारा--अनंत
  

मंगलवार, नवंबर 01, 2011

हमारे पसीने से

अमीरों के महलों में में रोशनी है ,हमारे पसीन से ...............

अमीरों के महलों में में रोशनी है ,हमारे पसीने से ,
खामोस हैं सभी मुफलिस फ़क़त मतलब है जीने से ,
रोटी दो वक़्त की मिल जाये शान  से,
इससे बढ़ कर और क्या माँगे भगवान से,
हँसी , ख़ुशी, प्यार के अल्फ़ाज,
नगमे, तराने,बजते हुए साज,
कहाँ नसीब हैं हम बदनसीबों को ,
दुनिया इंसान कहाँ समझती है हम गरीबों को,
ताक़तवर कभी नहीं चूकता मजलूमों को दबाने से ,
अमीरों के महलों में रौशनी है हमारे पसीने से ............

त्योहारों की टीस-ओ- कसक, उलझन-ओ-मसायल ,
हम तो होते हैं रोज़ सुबह-ओ-शाम घायल ,
घुटते हैं बहार-ओ-भीतर ,लाचार हो कर ,
वो बना बैठा है मुन्सिफ गुनहगार हो कर ,
इंसाफ़ की तमन्ना भी अब बेमानी है ,
मुँह में आह, दिल में दर्द, आँखों में पानी है,
फिर भी हम मुफलिसों की दरियादिली तो देखिये ,
हँस कर कहते हैं अब क्या होगा रोने से ?    
अमीरों के घर में रौशनी है हमारे पसीने से ,
खामोस हैं सभी मुफलिस फ़क़त मतलब है जीने से........

तुम्हारा --अनंत