शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

जर्जर किले के पीछे....!!

शहर के एक छोर में
एक जर्जर किले के पीछे
बूढ़े बरगद के नीचे
डूबते सूरज से लाल होती नदी के किनारे
एक उठान पर
गिरा पड़ा रहा हूँ मैं
कई-कई शाम
सवाल चारो तरफ बच्चों सा खेलते रहे हैं
या बिलखते रहे हैं भूंख से
नंग-धडंग
रंग-बिरंग
अंग-भंग सवाल

चेहरों की झुर्रियों
पेशानी की सिलवटों
जुबान की अकुलाहटों
और जिन्दगी की झंझटों में
गुथे हुए
भिधे हुए
ठने हुए
तने हुए
सिमटे हुए
लिपटे हुए..सवाल
जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ

किस तरफ हूँ मैं?
तनी संगीनों की तरफ
या उन हांथों की तरफ
जिन्होंने संगीनों के जवाब में
पत्थर उठाए हैं
संगीनों की तरफ
कानून है, तंत्र है
पत्थर वाले हांथों की तरफ
लोक है, लोकतंत्र है
छटपटाहट है
अकुलाहट है
ज़माने के  बदलने की आहट है
किस ओर हूँ मैं ?


मेरा तिरंगा कौन सा है?
संसद, लाल किले
जिंदल,अम्बानी,टाटा-बाटा,बिरला
के महलों पर लहराता
अपहरण किये गए तीन रंगों का तिरंगा
या... भूंखी नंगी काया के हांथों में
उम्मीद के तीन रंगों वाला
रिक्शे,टैक्सी, ठेलों वाला
खेतों खलियानों वाला
लहराता आजाद तिरंगा
मेरा तिरंगा कौन सा है?


मेरा देश कौन सा है?
कंकरीट के ऊंचे-ऊंचे जंगलों में
भावनाओं को ठगता
सुबह से शाम तक
बदहवास भागता
अपनी ही परछाईं से डरता
रोटियां छीन कर बोटियाँ चबाता
इंडिया...
या..जल,जमीन,जंगल में मुस्काता
जिन्दगी में लिपटा
भावनाओं से  सना
आशाओं,इच्छाओं,उम्मीदों
और सामर्थ से बना
खून,पसीना, आँसू बहाता
हिन्दुस्तान....
मेरा देश कौन सा हैं?


किस ओर हूँ मैं?
मेरा तिरंगा कौन सा है?
मेरा देश कौन सा हैं?

सवाल जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ

एक कदम चलना भी
मुस्किल हैं साथी
एक कदम, सौ चौराहों में बदल जाता है
सौ चौराहे, चार सौ राहों में
चार सौ राहें, चार हज़ार सवालों में
चार हज़ार सवाल
चालीस हज़ार संभावित जवाबों की
अवैध संतानें पैदा करतीं हैं
इन जवाबों में
मेरा जवाब एक भी नहीं है
जिसकी नसों में
मेरा खून दौड़ता हो
ऐसा जवाब एक भी नहीं है
सारे के सारे
अवैध हैं
नाजायज हैं

हार कर अब नहीं जाता
उस जर्जर किले के पीछे
डूबते सूरज से लाल होती नदी के किनारे
उठान पर गिरने, शाम को

मैं सवालों से भाग रहा हूँ

किस ओर हूँ मैं?
मेरा तिरंगा कौन सा है?
मेरा देश कौन सा हैं?

मैं सवालों से भाग रहा हूँ
शायद इसीलिए भीतर से मर रहा है?

जीने के लिए सवाल जरूरी है...

तुम्हारा-- अनंत 

रविवार, फ़रवरी 12, 2012

उभरा हुआ चेहरा...........मुक्तिबोध की याद में

उभरा हुआ चेहरा........
किसी लम्बी कविता की तरह
नंगे पाँव
अँधेरे में
भटकते और बडबडाते हुए
पहाड़ी के उस पार
झील के नीचे
दिवार पर
फूले हुए पलिस्तर पर
झरे हुए रंग से
उभरा हुआ चेहरा
कुछ कहता है
कहता है
पार्टनर तुम्हारी क्या पॉलटिक्स है?
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया?
अभिव्यक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे !
ये खूनी सफेदी के जंगल जलाने पड़ेंगे
(चुप्पी,दब्बूपन,और मौत का रंग  सफ़ेद होता है )  
ब्रम्ह राक्षस की तरह बावड़ी में कैद मत रहो !
बहार निकलो !
मुँह खोलो !
कुछ कहो !

एक बुझी हुई बीड़ी जलाता हूँ फिर से
 धुंए में उड़ जाता है
वो चेहरा
बच जाती है
 वो बुझी  हुई बीड़ी
बुझा हुआ मैं
और बुझी हुई राख

तीनो में से किसी को भी
पढ़ लो !
गढ़ लो !
मढ़ लो !
तीनों के  तीनों
कविता है  

तुम्हारा--अनंत 

  

उम्र के अठारह बसंत पार करके........पा लिया था...........खुद-ब-खुद,

सब कहते है
मेरे पास कुछ है
जो उम्र के अठारह बसंत पार करके
उम्र के अठारह बसंत पार करके....
मैंने पा लिया था
खुद-ब-खुद
बड़ी ताकतवर चीज है वो
संसद चलाती है
सरकार बनाती है
बड़े-बड़े सूरमा
हाँथ जोड़ते हैं
मेरे सामने
फैलाते हैं
अपना रेशमी दामन
कि मैं अपने खुरदुरे हांथों से
 दे दूं उन्हें वो चीज
जिसे मैंने पा लिया था
 उम्र के अठारह बसंत पार करके,
खुद-ब-खुद,

यकीन मानों
मुझे यकीन नहीं होता
कि मेरे पास कुछ है
 जिससे सरकार बनती है
संसद चलती है
सत्ता जिसके मुँह ताकती है
मेरे पास ऐसा कुछ है
किसकी कुछ कीमत है
यकीन मानो
मुझे यकीन नहीं होता
बल्कि हर बार ऐसा लगता है कि
आश्रित होने का झूठा भ्रम रचा जाता है
लोकतंत्र कि रीढ़ विहीन लाश का
 बचा हुआ खून चूसने के लिए
पाली बतालते हैं रक्त पिपासु
इसका भी इल्जाम आता है मेरे ऊपर
मैंने बदल दिया शोषित मृत शरीर पर
 शोषक की काया
नया शोषक नए तरीके से
नए जोश और रणनीति के साथ
चूसता है खून मेरा और मेरे लोकतंत्र का
हर बार मुझे लगा है
 कि मैं नपुंसक हूँ
 जो नहीं सम्भाल पाया
 वो कीमती चीज
जो पा लिया था
मैंने उम्र के अठारह बसंत पार करके
 खुद-ब-खुद
छीन लिया शोषक ने
 और कर रहे हैं शोषण लोकतंत्र की लाश का
बदल कर चाल -चेहरा
भाषा, रंग और झंडा
 खड़े हैं चारों तरफ बदले हुए
 बटे हुए
 बिखरे हुए
सब एक हैं
 छीन लेंगे इस बार भी मुझसे
 वो चीज जिसे मैंने पाया था
 उम्र के अठारह बसंत पार करके
 खुद-ब-खुद

तुम्हारा--अनंत  

शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

मजूरा जानता है......

तनी भृकुटी पर
अनमने से मन की
बलि दे कर
फिर से लग गया था काम पर
हाड-मांस की काया है
मशीन नहीं है बाबू जी !..
ये भी नहीं कह सका
क्योंकि जवाब का जूता
खा चुका था कई बार 
तुम नहीं तो कोई और सही
बहुत हैं काम करने को
कामचोर! कहीं के......
कहा जोर से
 मालिक ने
 सुना दुनिया ने


 सुगबुगाते हुए
 अपने आक्रोश और चीख को
धैर्य और विवशता की
काली पहाड़ी के पार
 खूँटे से बाँध कर
 बुदबुदाया मजूरा !
 तुम जैसे ही हैं सभी
 बहुतों के यहाँ करा है काम
 दामचोर! कहीं के....
 कहा  अपने ही मन में
 सुना मजूर ने


 मजूर कामचोर है
दुनिया जानती है
 मालिक दामचोर है
 मजूरा जानता  है


(क्योंकि दुनिया मन की आवाज़ नहीं सुन सकती .....)
तुम्हारा--अनंत 

गुरुवार, फ़रवरी 09, 2012

उजाला दर्द है...... दर्द उजाला है

अँधेरे में ख़ामोशी ओढ़ बैठा उजाला,
कलम थाम कर कुछ लिख रहा है,
रगों के लहू और जिस्म के पसीने को,
कलम में भर  कर,
वो दिलों में बह रहा है,
गजलों के शेरों में उजाला पेवस्त है,
भूख चबाये दर्द पिए वो अलमस्त है,
चादर मजार पर पड़ी है उजाले की,
शहर की चौक पर उजाला घुट रहा है,

कमर पर लटके बच्चे के रोने की आवाज़,
माथे पर चुह्चुहाते लाल सिन्दूर की टपकन,
और पैर में पड़े पायल की आवाज़ ,
रचते है एक कोलाज,
जिसकी सूरत मिलती है द्रोपदी से,
शायद उजाला देखना  चाहता है,
महाभारत फिर से,
कर रक्खी  है बगावत उजाले ने,
वो बागी बना भटक रहा है,
जीते हैं सब हंसी में उजाला ग़मों का शौक़ीन  है,
ख़ामोशी की इस गहरी खाई में,
लिथड़ा पड़ा उजाला,
हर ग़मगीन आवाज़ में घुल कर बोल रहा है ,

उजाला दर्द है...... दर्द उजाला है    

तुम्हारा--अनंत

इंसान बारूद है........

इंसान फूट पड़ता है,
धमाके के साथ,
इंसान बारूद है,

ये बारूद चिंगारियों से नहीं दगता,
ज्वालामुखी के लावों से भी नहीं,
आग की सुनामी भी पचा जाता है ये,
ये बारूद जुल्म की इंतहाँ से फूट पड़ता है,
इंसान फूट पड़ता है,
धमाके के साथ,
इंसान बारूद है,

बारूद सीलन से ख़राब हो जाता है,
सीलन ख़ामोशी है,
चुप्पी है,
डर है,
दब्बूपन है,
मौन है,
सुरक्षा के लिए आकुलता है,

सीलन बढ़ रही है वतन में,
मुझे डर है,
कि कहीं वतन का सारा बारूद ख़राब न हो जाए,
और मैं फिर कभी  न कह पाऊँ कि......
 
इंसान  फूट पड़ता है,
धमाके के साथ,
इंसान बारूद है,
 
तुम्हारा --अनंत