शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

तुम मर नहीं सकती ....

दिल्ली में बलात्कार नाम की एक घिनौनी कायरता की शिकार हुई और सम्पूर्ण पित्रसतात्मक मानसिकता में कैद समाज को झझकोर देने वाली, मेरी जुझारू दोस्त के संघर्ष के पक्ष में खड़ी ये कविता.

सब कहते हैं कि तुम मर गयी 
दम तोड़ दिया तुमने 
तुम बच भी जाती तो एक जिन्दा लाश बन कर जीती 
संसद में “महिला “स्वराज” की एक प्रतिनिधि ने कहा था.
और तुमने पाया था कि एक महिला भी पुरुष हो सकती है.

जब तुम लड़ रही थी उस सरहद पर 
जहाँ मर्द और औरत के बीच दिवार खड़ी है.
और औरत की आज़ादी उसकी नींव में गड़ी है
तब देश की सब औरतों ने पसारे थे पंख 
निकाले थे पाँव, चीख कर चिल्लाईं थी.
कि हमें ये दिवार ढहानी है
और दीवारों की ओर दौड कर टकरा गईं थी
उलझ गईं थी उस दिल्ली से जो पुरुष है

जब तुम लड़ रही थी,
किसी दुर्गा, काली, चंडी की तरह नहीं,
बल्कि खुद की तरह
तब घर से ले कर बाहर तक लहराई थी
वो कलाईयाँ, मुट्ठियाँ बन कर
जो 
तब से पहले महज़ चूडियाँ खनकाती थी

सारे फांसी के फंदे चटक कर गिरने वाले थे
सारे पिंजरे टूटने वाले थे
और वो परछाइयाँ जल कर भष्म होने वाली थीं
जिनमे आधी आबादी कैद है
कि तुमने शरीर का चोला उतर दिया
आवाज़ बन गयी,
शरीर की बेड़ियाँ काट कर रूह हो गयी तुम
नदी की तरह
हवा की तरह
आग की तरह
अब लड़ोगी तुम, शरीर की बंदिशों से आजाद हो कर
मैं जानता हूँ

मैं जानता हूँ कि वो मर नहीं सकती
जो आधी आबादी के पंख में धार कर सकती हो
पाँव की बेड़ियों पर हथौड़े से वार कर सकती हो
हर पल सांस की तरह मौत देने वाले
फांसी के फंदे को तोड़ कर गिरा सकती हो
वो मर नहीं सकती

मैं जानता हूँ
तुम एक शरीर छोड़ कर आधी आबादी हो गयी हो
तुम इस लड़ाई के अंतिम क्षण तक लड़ोगी
मैं जानता हूँ
तुम कहीं नहीं गयी हो
मैं जानता हूँ
तुम उन सब में जिन्दा हो
जो जिंदगी को बराबरी का मतलब देना चाहते है
मैं जानता हूँ
तुम मर नहीं सकती

तुम्हारे संघर्ष से प्रेरणा लेता और तुम्हे सलाम करता तुम्हारा दोस्त-अनुराग अनंत


http://www.jagran.com/news/national-timeline-of-delhi-gangrape-9989114.html

रविवार, दिसंबर 23, 2012

"वह शक्ति हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें.....

सागर की अतल गहराई से
आती है स्कूल की प्रार्थना की आवाज़
छुट्टी की घंटी की टन-टन-टन....
किसी कटी पतंग के पीछे भागते बच्चों का शोर
कच्चे घरौंदों की खुशबु
और बहुत कुछ
जिनका नाम लेना साइनाइड चाट लेने जैसा है

मैं सागर हूँ
और अतल गहराई, वो यादें
जिनमे याद करने लायक कुछ भी नहीं
सिवाय उस पंक्ति के....
"वह शक्ति हमें दो दयानिधे
कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें.....

सागर और गहराई के बीच
खड़ी है माँ
और उसकी आँखें
इन सब के ऊपर छाई है मेरी बेकारी
और वो पंक्ति
"वह शक्ति हमें दो दयानिधे
कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें.....

माँ के हाथों की बनाई रोटी
एक कुत्ता छीन ले गया है
वही कुत्ता जिसने मुझे
"वह शक्ति हमें दो दयानिधे
कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें.....
गाते सुना और काट लिया था

घर अब घर नहीं लगता
वो फंसी का तख्ता लगता है
जहाँ भगत सिंह नाम के किसी आदमी को फांसी हुई थी
या फिर हरे खेत का वो कोना लगता है
जहाँ पाश को गोली मारी गयी थी
मैं खूब चाहता हूँ कि
वो मेरे बचपन के खेल का मैंदान लगे
जहाँ मैंने सीखा था कि कैसे सीखना चाहिए
वो कोचिंग की बोरिंग क्लास लगे
जहाँ मैंने अनुभव किया था कि लड़कियों की आँखों में जादू होता है
और न्यूटन और पाईथागोरस पागल थे
पर बहुत चाहने के बाद भी घर मुझे वो जंगल लगता है
जहाँ एक सागर
अतल गहराई में समा जाना चाहता है
खो जाना चाहता है
किसी रंग में जिसका नाम अभी खोजा जाना बाकी है

मेरी माँ का बेटा
कहीं खो गया है
दीवारों के नारों ने
अखबारी कतरनों ने
और जंगल से आने वाली
नदियों, पहाड़ों और आदमियों की आवाज़ों ने
न जाने उसे कहाँ ले जा कर छोड़ा है
मेरी माँ उसकी आवाज़ नहीं सुन पाती
सुन पाती है तो बस वो पक्तियां

"वह शक्ति हमें दो दयानिधे
कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें..... की सतत अनुगूंज

वो मेरी ओर देखती है
अब मैं क्या बोलूं
वो जाने और उसका बेटा जाने
मैं तो सागर हूँ
जो अपनी अतल गहराई में खोया हुआ है
साइनाइड चाट के सोया हुआ है

तुम्हारा- अनंत

मंगलवार, दिसंबर 18, 2012

मेरे भीतर का मर्द मार दिया जाए..............

आज बहुत शर्मिंदगी हो रही है हर उस चीज से, जो मुझसे और सबसे बिना कुछ कहे ही कह देती हैं कि मैं मर्द हूँ. मैं आज हर उस चीज को खुद से अलग कर देना चाहता हूँ जो मुझे मर्द बनाती है. क्योंकि मर्द होना जानवर होना होता है. कुछ ऐसा ही लगने लगा है मुझे, जब से दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में उस लड़की का  बलात्कार हुआ है जिसका नाम मैं नहीं जानता हूँ.पर मैं इतना जनता हूँ कि वो एक लड़की थी, एक इंसान थी, मैं ये नहीं कहूँगा कि वो एक बहन थी, एक बेटी थी, एक ये थी, एक वो थी, गंगा की तरह पवित्र थी, धरती की तरह गरिमामयी थी, और ऐसे ही अनाप-सनाप के उपमाएं मैं नहीं गढूंगा, क्योंकि मैं जान गया हूँ कि ये मर्दों की और उनकी व्यवस्था की साजिश है. एक ऐसा जाल जिसमे एक लड़की फंस कर अपना वजूद खो देती है. 

मेरे लिए वो एक लड़की थी, एक लड़की, जिसका अपना वजूद था जो हमारे आपके और किसी और के बताये हुए परिभाषिक सांचों से बहार अपना रूप-रंग, आकार, गढ़ने को अमादा थी और पूरी ताकत से लैस भी. पर एक कायरता का शिकार हो गयी. जिसे हमारा सभ्य-समाज सामूहिक बलात्कार, गैंगरेप जैसे मर्यादित नामों से जानता है. मर्यादित इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि  ऐसे ही कई प्रतापी काम करके हमारे नेता संसद के मंदिर में पहुंचे है और संविधान, क़ानून और व्यवस्था का घंटा बजा रहे  है.  

सच में आज मैं दिल से चाहता हूँ कि मुझे और इस पूरी पित्रसतात्मक व्यवस्ता को थोडा-थोडा ज़हर पिलाया जाये, थोड़ी-थोड़ी फाँसी दी जाये. थोडा-थोडा जलाया जाये, मैं चाहता हूँ कि हम सब का थोडा थोडा बलात्कार किया जाए. इस बार हमें बच कर कतई निकलने न दिया जाये. 

मैं चाहता हूँ कि वो लड़की जो पीलीभीत की रहने वाली है, जो रविवार 9:30 बजे रात से पहले ये सोचती थी कि दुनिया सुन्दर है, जिसने पढ़ रखा था कि जब किसी अबला की इज्ज़त  पर बन आती है तो भगवान कृष्ण उसकी इज्ज़त बचने के लिए आ जाते है. जो आकाश छू लेना चाहती थी. जो दिन में कम से कम 24 बार शादी के सलोने सपने देखा करती थी. जिसने G.K.  की किताब  से बचपन में ही, दिल्ली देश की राजधानी है और यहाँ पर कानून बनाये जाते है यहाँ पर संसद है, देश भर के चुने हुए अच्छे लोग (नेता) यहाँ पहुँचते है, ऐसे ही कई लघु उत्तरीय प्रश्न  रट लिए थे.

मैं चाहता हूँ कि  वो लड़की जो अभी दिल्ली के शफदरगंज  अस्पताल में वेंटिलेटर पर लेती है और किसी भी पल कोमा में जा सकती है. वो लड़की जिसने जिंदगी का असली चेहरा देख लिया है और अब कतई नहीं कह पायेगी कि दुनिया सुन्दर है. वो लड़की जिसका विश्वास और इज्ज़त लूटी गयी और कृष्ण नहीं आये और उसने कृष्ण को गीता में जितने श्लोक है उतनी गलियां और उलहने दिए होंगे  

मैं चाहता हूँ कि वो लड़की जिसके जहन में अब कोई सपना नहीं पनपेगा. जो अपने साथ घटी हकीकत से कभी बहार नहीं निकल पायेगी. वो लड़की जिसने बचपन में G.K. की किताब  से रटे सारे लघु उत्तरीय प्रश्न भुला दिए होंगे और दिमाग में लिख लिया होगा कि दिल्ली में सिर्फ दरिंदे बसते है. 

मैं चाहता हूँ वो लड़की दुर्गा, चंडी, काली, फूलनदेवी, या ऐसा ही कुछ बन कर सारे देश की औरतों की  सेना ले कर आये और  मेरे भीतर के और इस समाज के भीतर के मर्द को मार दे. 

सच कहता हूँ मैं आज उस लड़की के हांथो मर जाना चाहता हूँ. क्योंकि उसे अधिकार है कि वो हमें एक लाइन से खड़ा  करके गोली मार दे या फिर लाल किले के बुर्ज पर हमारे शीष  काट कर टांग दे. क्योंकि हम इस समाज के हिस्से है और चुप्पे भी. चुप्पी की सजा मौत होती है.  


मेरे भीतर का मर्द मार दिया जाए..............

तुम दिल्ली के किसी अस्पताल में
वेंटिलेटर पर पड़ी हो
किसी भी पल कोमा में चली जाओगी

ऐसा कहा है अखबार ने,
टीवी पर तुम जैसी एक लड़की ने
रेडियो भी कह रहा था, यही बात

सुनो! मुझे तुमसे शिकायत है
हाँ! सीता
द्रोपदी 
अहिल्या
मलाला यूसुफजई
सोनी सोरी
मनोरमा मणिपुरी 
जो भी तुम्हारा नाम हो 
मुझे तुमसे शिकायत है !

तुम वापस क्यों नहीं आती
दुर्गा, चंडी, काली
उदा पासी
फूलन देवी
या ऐसी ही कुछ बन कर

मैं चाहता हूँ 
कि मेरे भीतर के मर्द को तुम मार दो ! 
वो भी था
दिल्ली की उस चलती हुई बस में 
जहाँ तुम्हारे एहसासों के परिंदों के पर काट दिए गए 
और उनके  मरे हुए चेहरों पर लिख दिया गया 

दुनिया दरिंदों की है! 

मैं तुम्हें बुला रहा हूँ 
तुम आना जरूर आना 
और मेरे भीतर के मर्द को 
ज़हर देना 
जला देना 
फाँसी देना 
बलात्कार कर देना 
या फिर ऐसा ही कुछ जो तुम्हारे मन में आए

पर तुम आना जरूर 
क्योंकि मैं चाहता हूँ 
कि मेरे भीतर के मर्द को मार दिया जाए

वेंटिलेटर पर पड़ी मेरी दोस्त---तुम्हारा अनंत 

खबर की  लिंक


शुक्रवार, दिसंबर 14, 2012

उसकी आँखों के मकतब मे......


उसकी आँखों के मकतब मे  मोहब्बत पढ़ के आया हूँ,
मैं कतरा हूँ दरिया का, सहरा से लड़ के आया हूँ,
काटा था पर सैयाद ने कि उड़ न सकूँगा ,
जो उसने बुलया तो मैं उड़ के आया हूँ,
एक डायरी मे रख कर, उसने मुझे गुलाब कर दिया,
खोला जो किसी ने तो फूल से झड़ के आया हूँ,
मैं एक सूखी  हुई पंखुरी हूँ, तो क्या हुआ, मुझे होंठों से लगा लो,
कसम खुदा की मैं खुद को मोहब्बत से मढ़ के आया हूँ
एक हरा -भरा दरख्त था मैं किसी जमाने मे,
किसी ने मेरी छाँव यूं खींची कि  उखाड़ के आया हूँ,
यूं तो कोई गरज न थी मुझे तुम्हारी महफिल मे आने की,
पर क्या करू मैं तुम्हारी मोहब्बत मे पड़ के आया हूँ ,

तुमहरा--अनंत 

एक उजड़ा शहर .....


उसका असर कुछ इस कदर हो गया है,
कि असर का असर भी बेअसर हो गया है,
इस लुटे हुए दिल को कोई दिल क्यों कहेगा,
ये दिल तो एक उजड़ा शहर हो गया है,
राहें और मंजिल जिसकी दोनों ही गुम हैं,
वो मदमस्त राही बेफ़िकर हो गया है,
जो समंदर की सोहबत में रह करके लौटा,
वो थोड़ा सा साहिल, थोड़ा लहर हो गया है,
ये बद्हवास ख्वाबों की दौड़ थमती नहीं क्यों,
आज आदमी खुद एक सफ़र हो गया है,
तुमने लालच से उसे ऐसा मैला किया है ,
कि जो पानी था अमृत, वो जहर हो गया है,
तुम्हारा--अनंत

इंसानियत का नशा.......


मैं रात-ओ-दिन एक अजब ज़ंग लड़ता हूँ,
मैं अपने लहू से अपनी गजल गढ़ता हूँ,
वो बेवफा हो गया तो क्या हुआ ''अनंत''
मैं उसके खातिर अब तलक दिल मे वफा रखता हूँ,
वो मिलता है तो मुँह पर दुआ और दिल मे मैल होती है,
मैं जब भी मिलता है ,दिल आईने सा सफा रखता हूँ,
शायद यही वजह है जो इस घाटे के दौर मे भी,
मैं यारों की दौलत और मोहब्बत का नफ़ा रखता हूँ,
जला है जब से नशेमान मेरा मैं नशे मे हूँ ,
अब हर वक़्त बस मैं इंसानियत का नशा रखता हूँ
तुम्हारा---अनंत