बुधवार, अप्रैल 17, 2019

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-11

तुम्हारी याद किसी भेड़िये की तरह
उलझन की झाड़ियों से कूद कर वार करती है ज़िगर पर
और मैं रिसते हुए लहू की लकीर बनाते हुए
रेंग कर नींद तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ
पीछे पीछे तुम्हारी याद मेरे पस्त होने के इंतज़ार में
लहू की लीक पर, ख़ून सूंघते हुए मुझतक पहुँचती है
और नींद तक पहुँचने से पहले ही मेरा शिकार कर लेती है

आंखों से भाप की तरह उठती रहती है कराह
और आंखों के नीचे स्याही सी जमा होती रहती है मेरी पीड़ा
देखने वाले देखते हैं और पूछते हैं
"कल फिर तुम सारी रात नहीं सोए ना ?"

अनुराग अनंत

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