रविवार, अक्तूबर 27, 2013

ए! इकीसवीं सदी की कविता गवाही दो!

ए! इकीसवीं सदी की कविता
गवाही दो!
कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं
और तुम एक शब्द विहीन कविता हो!
तुम एक मौन की कविता हो!

तुम्हारी रगों में जो खून बह रहा है
वो बेवजह मारे गए लोगों का लहू है
और धडकनें उन आवाजों की कराह हैं
जिन्होंने बोलने के लिए जान गंवाई है

इस दोमुंहे समय में
जब डसा जाना बिलकुल तय है
तुम लड़ते हुए बीच में खड़ी हो

हे! तप्त मौन की शापित कविता
तुम जीवित हो!
मृत शब्दों और घुटी हुई आवाजों के साथ तुम
जीवित हो!
ए! इकीसवीं सदी की कविता
गवाही दो!
कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं

पिटे हुए विदूषकों और लफ्फाजों का दल
संविधान की छाती पर चढ कर राष्ट्रगान गा रहे हैं
राष्ट्रगान कि जिसमें राष्ट्र कहीं नहीं है
महज़ गान है
प्रेमिका की नाभि पर खिले हुए कमाल पर लिखा गान

कंक्रीट के जंगल में सपनों के पांव खो गए है
और हाँफते हुए हौसलों ने भटकना अपनी नियति मान ली है
नसों में बहता हुआ बहुरंगी बाज़ार तेजाब है
पर मजबूरी है कि तेजाब पी कर मरते हुए जीना है

एक देश दूसरे देश पर चढ़ा है
और दबे हुए देश की पीठ पर कानून अशोक की  लाट सा खड़ा है
हर चौराहे पर एक अंधी बनिया औरत है
जो अदालत की उस देवी से मिलती है
जिसने लक्षमनपुर-बाथे के अपराधियों को
आँखों पर पट्टी बांध कर बेक़सूर देखा था

सुनों!
वो देश जो जंगल में रहता है
खेतों में उगता है
नदियों में बहता है
लोहों में ढलता है
बचपन में मचलता है
और रोटी के ख्याल में भटकता हुआ
खुले आसमान के नीचे सोता है
तुम्हे गा रहा है
संविधान के चार दीवारी के उस पार
संसद के पहुँच से बहुत दूर
पेट की लड़ाई लड़ता हुआ
तुम्हे गा रहा है
भूख की ताल पर तुम्हे गा रहा है

ए! इकीसवीं सदी की कविता
अकेले पड़ते इंसान के अकेलेपन की गवाही दो!
ए! इकीसवीं सदी की कविता
मारी जाती इंसानियत की मौत की गवाही दो

ए! इकीसवीं सदी की कविता
गवाही दो!
कि सदी के सारे शब्द मार दिए गए हैं

गवाही दो!
कि अब कहने के लिए कुछ नहीं है
और करने को बहुत कुछ

तुम्हारा-अनंत