औंधे मुँह आ गिरा दिन ,
रात के पैरों में ,
पड़ा-पड़ा सो रहा है ,
देख कर कोई सपना .......
जो भागना चाहा कभी ,
फजीलों ने रोक लिया ,
और बंद कर दिया .
अँधेरे कमरों में,
रात के आगोश में .............
धीरे-धीरे सुलगने के लिए ,
उस दिन ,दिन के चेहरे पर ,
एक मायूस सी मुस्कुराहट,
कि जिसे खिंचा गया हो .
दोनों सिम्त से ,
अबाले पढ़े थे ,दोनों जुबाँ पर ,
एक जुबाँ वो कि जिससे सच कहता था दिन ,
एक वो जो झूठ कहती थी ,
पर आज दोनों जुबानें खामोश हैं ,
शायद दिन अभी तक समझ नहीं पाया ,
उस रात जो रात ने कहा ,किया.............
वो सच था या झूठ
तुम्हारा --अनंत
1 टिप्पणी:
रात और दिन का सच कहती हुई गहन रचना
एक टिप्पणी भेजें