कान पकड़ कर एक दूजे का,
हम आला-बाला खेला करते थे ,
लुका-छिपी ,गुड्डा-गुडिया ,
पकड़ा-पकड़ी और...........
न जाने क्या-क्या ?
माटी का घर था ,
कागज की कस्ती थी ,
नालियों में नदियाँ थी ,
नालों में समंदर था ,
और सावन भालू की तरह नाचा करता था,
आँगन में ,
फिर हँसी की सब्ज फसल उग आती थी ,
लबों की सुर्ख ज़मी पर ,
हम साथ गले-हाथ डाले ,
स्कूल से चले आते थे ........
कभी तुझे छूने से पहले,
ये नहीं सोचा की तुझे छू रहा हूँ ,
हर बार तुझे यही सोच कर छूआ ,
की जैसे खुद को छू रहा हूँ ,
पर मुन्नी !!!!!!!!!!!
जब से तू दुपट्टा लेने लगी है ,
तेरे गले में हाथ डालते नहीं बनता ,
तुझे उस तरह छूते नहीं बनता ,
जैसे पहले छूता था ,
तू कल दो चोटी कर के फ्रांक पहेनना ,
दोनों तैयार हो कर फिर से स्कूल चलेंगे,
तुम्हारा --अनंत
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