जब सुबह से शाम तक ,
रात की तरह हर बात पर ,
बेकसी का सूत कात कर ,
घर लौटता हूँ ...........
गडा देता हूँ अपनी दोनों कील नुमा आँखें ,
सामने की तकिया नुमा दिवार पर ,
सच में ये आँखें भीतर तक घुस जाती हैं ,
सच में ये आँखें भीतर तक घुस जाती हैं ,
और मुझमे मेरे होने को नकार देती है,
फिर बड़ी धीरे से चिड़ियों की तरह!
कहती है ,
न जाने तुम कौन हो ??.
तुम कौन हो ??
पता नहीं ..................
तुम्हारा --अनंत
4 टिप्पणियां:
खूबसूरती से लिखे एहसास
सुन्दर अभिव्यक्ति ! अध्यातम की तरफ बढ़ते कदम . शुभ कामनाएं .
सुन्दर अभिव्यक्ति,शुभ कामनाएं .
बहुत सुन्दर अनंत जी अच्छी कविता लिखा है आप ने
चित्रात्मक रचना
बहुत सुन्दर
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