शनिवार, जून 01, 2019

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-13

आजकल दिन रात तक पहुंचने का रास्ता मात्र है
रात ?
मेरी रातें ना जाने कब से परिभाषा को तरस रहीं हैं

तुम जो कलतक एक लड़की थी
आज अंतरिक्ष हो चुकी हो
तुम्हें अवाज़ देता हूँ
तो मेरी अवाज़ कहीं खो जाती है

एक दिन तुमनें प्रेम से जो एक अँजुरी धूप दी थी
इस अंधेरे से उसी ने मुझे बचा रखा है
अब सुबह उठता हूँ तो डर लगता है
कि कहीं बिच्छुओं पर पैर ना पड़ जाए
हालांकि जाना कहीं नहीं है
पेड़ों को पैरों का कोई काम नहीं होता

कुंद होते इस समय में जब तुम नहीं हो
और याद जैसी कोई चीज़ चींटियों में बदल चुकी है
प्रेम जिसे मैंने कबूतर समझा था
रीढ़ से शुरु करके ज़िगर तक सबकुछ चबा जाना चाहता है

मैंने तुम्हारे दिए धूप के एक नन्हें टुकड़े में
चुपके चुपके धार लगानी शुरू कर दी है
जिसदिन इस धूप के टुकड़े की नोंक पर उगेगा चाँद
उसी दिन समय निकाल कर मैं ये कहानी पूरी कर दूंगा

कविता की आख़री पंक्ति लिखी जाएगी
और सारी अटकी हुई बातें हमेशा के लिए
शांत हो जाएंगी

इसी तरह विदा होता है कोई जिद्दी आदमी
इसी तरह ख़तम होती है कोई कहानी

अनुराग अनंत

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