शनिवार, सितंबर 20, 2014

रात के उस पार

-चाँद फरेबी है
-तुम ऐसा कैसे कह सकते हो
-कैसे का क्या मतलब होता है ?
-कैसे मतलब, कोई सबूत है इस बात का ?
-नहीं मेरे पास कोई सबूत नहीं है. लेकिन चाँद फरेबी है.
-तुम ऐसी बातें मत किया करो
-कैसी बातें ?
-जिनका कोई सबूत न हो
-तो फिर तुम ही कुछ कहो
-आसमान नीला है
-मैं नहीं मानता, कोई सबूत है क्या ?
-नहीं
-तब मैं मान जाता हूँ
-क्यों ?
-क्योंकि बिना सबूत वाली बातें सच होतीं हैं
और उन्हें जान कर कुछ कहने का मन नहीं करता
और न जान कर हम घड़ी की तरह लगातार बोलते रहते हैं

मैं कहीं खोया हुआ हूँ और दिवार से गिरते हुए पलस्तर मेरे दुःख में ही गिर रहें हैं. मैंने खुद को जहाँ रखा था. वहाँ अब मेरी शक्ल थी पर मैं नहीं था. मैंने खुद को तुम्हारे और मेरे फोन के बीच फैले सागर और रेगिस्तान में खूब तलाशा, पुरानी डायरियों में खंगाला, फेसबुक पर खोजा, ईमेल के ड्राफ्ट में और बटुए के खालीपन में भी देखा पर मैं कहीं नहीं था. मेरी भाषा की जगह सिगरेट के फिल्टरों की भाषा थी और मेरे मौन की जगह तुम्हारी बोली ने ले ली थी.

-तुम आँख मिचौली मत खेलो
बाहर आयो जहाँ कहीं भी हो
-मैं खुद को खोज रहा हूँ
-पर तुम तो मेरे साथ हो
-नहीं मैं कोचिग में हूँ
या शायद दारागंज स्टेशन पर बैठा हूँ
या किसी मंदिर की आरती में हूँ
या फिर कहीं तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ

तुम एक बड़े घर में, तीन कमरों में से बीच वाले कमरे में अपनी माँ के साथ हो. पहले वाले कमरे में चाँदी का ताला लगा है और तीसरे वाले कमरे में सोने का. बीच वाला कमरा खुला है पर इसका कोई ख़ास मतलब नहीं हो सकता क्योंकि दो तालों के बीच एक और ताला है. तुम्हारे पैरों में पड़ा पीतल का ताला.
-और मेरी माँ ?
-वो तो तालों की ही बनीं हैं
उनकी साँसों में सैकड़ों ताले हैं
और धडकनों में हजारों
वो लाखों तालों की बनीं एक औरत हैं
और जब कभी टूटेंगीं
तो करोड़ों लोगों को कैद हो जाएगी
और अरबों लोग फांसी पर चढ़ा दिए जायेंगे
-मतलब क्रांति हो जाएगी
-ऐसा मत कहो, मुझे हंसी आती है
-किस पर, माँ पर ?
-नहीं
-तो क्रांति पर ?
-नहीं, तालों पर
-और किस पर ?
-तुम्हारे भाइयों पर
जो अपने हांथों में सूरज
और जेब में पृथ्वी लिए घूमते हैं
उनके मोबाइलों में ओबमा का नंबर है
और राहुल गाँधी को जो पहचानते भी नहीं
मायावती से उन्हें घृणा है पर हांथी पर उन्हें प्रेम आता है.
इसलिए वो मायावती को बहनजी कहते हैं.
-और मुलायम सिंह और मोदी ?
-उनके बारे में कल बात करेंगे
-और अपने बारे में ?
-अभी, इसी वक्त
-तो उसदिन फेसबुक पर तुमने क्या लिखा था ?
और मेल पर और गूगल प्लस पर
हर जगह कोई एक ही मैसेज भेजता है क्या ?
-मैंने मैसेज कहाँ भेजा था ?
-तो फिर क्या था वो ?

मैं उससे सिगरेट की भाषा में कुछ कह रहा था और मेरे दिमाग में बारह साल से तड़पता हुआ दर्द टहलने लगा था. मुझे याद आया कि मैं भूखा दारागंज स्टेशन पर बैठा हूँ जबकि अभी तक मेरी सरकारी नौकरी लग जानी चाहिए थी. माँ का उदास चेहरा हंस रहा है क्योंकि वो चाहती है कि उसका कोई बेटा उदास न हो. उसे डर है कि जवान बेटे उदासी में आत्महत्याएं कर लेते हैं. पिता जी नहीं हैं. एक भाई है जो छोटा है पर पिता जी की तरह लगता है. एक बहन भी है. जो एक सेकेण्ड में हज़ार सपने देखती है और खुद को किसी फिल्म की हिरोइन समझती है. दुनिया का हर गोरा लड़का उसे शाहरुख़ खान लगता है और उसके भयानक सपने सच को खा जाते हैं.

मैंने उससे न जाने क्या कहा ? मैं कुछ सुन नहीं सका था. शायद कोई ट्रेन मेरे दिमाग से गुजरी थी और उसके सायरन ने मेरे कानों का गला घोंट दिया था.

-तुम अपना ख्याल रखा करो, "तुमने बच्चों की तरह तोतली आवाज़ में कहा"             

मुझे लगा अभी सबकुछ बदल जायेगा और कई सारे सच झूठ होकर तड़पने लगेंगे. दुनिया के सारे रेगिस्तानों में बाढ़ आ जाएगी और सातों समन्दरों का पानी मीठा हो जायेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और मेरे खून में आग के बच्चे कबड्डी खेलने लगे. मैंने एक घूँट तेज़ाब पिया और मेरी भाषा की रीढ़ की हड्डी गल गयी

-मैं अपना ख्याल किसके पास और कहाँ रखा करूँ ? तुम कुछ बताओ तो.
-क्या तुम मुझे एक अच्छी लड़की नहीं बनने देना चाहते ?
-ये मेरे सवाल का जावाब नहीं है
-लड़कों का ख्याल अपने पास रखने वाली लड़कियां अच्छी लड़की नहीं होती.
-किसने कहा ये तुमसे ?
-मेरी माँ ने
-तुम्हारी माँ तो तालों की बनीं हैं
-मेरे भी तो पैरों में ताले हैं
-लेकिन कैद में तो मैं हूँ, फांसी तो मुझे होगी.
-तुम कुछ नहीं समझते
मैं एक अच्छी लड़की बनना चाहती हूँ
जिसका ताला शादी के पहले कोई तोड़े न और शादी के बाद जो अपने ताले खोले न. उसे तालों से मोहब्बत हो और जितनी बार उसकी तारीफ की जाए. वो एक ताला मुस्कुराते हुए पहन ले.
-मतलब तुम ताला बनना चाहती हो
-नहीं, नहीं. तालों का पहाड़, जैसे मेरी माँ है

तुमसे मिलने के बाद रात का एक सिरा तो पहले से ही गीला था पर उस दिन के बाद, जब तुमने निदा फ़ाज़ली का शेर पढ़ कर फोन काटा. मेरी रातों का दूसरा सिरा, और भी खारा, और भी गीला होता चला गया. रातें जितनी गीली होतीं जाती थीं मैं उतना ही बंजर होता जाता था. मुझे लगता था कि किसी दिन, रात में बाढ़ आएगी और मैं प्यास से मर जाऊँगा.
तुमने शेर पढ़ा,
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
और मैं जमीन पर पड़ा तड़पने लगा था. राह चलते लोगों को लगा, मुझे चक्कर आया है पर मैंने मुस्कुरा कर उन्हें बताया कि ये मेरी आदत है. जो मुझे कक्षा 9 से पड़ गयी है और ये आदत धीरे-धीरे जान ले लेगी. जैसे भगवान धीरे धीरे हमारे जीने के दिन ले लेते हैं. लोगों को मेरी भाषा समझ नहीं आई. उनके दिमाग में कपिल शर्मा का एक चित्र बना और वो हँसते हुए इत्र की तरह उड़ गए.

तुम्हारे शेर पढने के बाद से मुझे, जमीन और आसमां में से किसी एक को चुनना था पर मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकता था इसलिए मैंने नदी को चुना. जो जमीन और आसमां के बीच थी. गंगा में बाढ़ आई हुई थी और गंगा का चेहरा समुद्र से मिलने लगा था. उस दिन अगर तुमने ये शेर न पड़ा होता तो या तो मैं आसमां को अपना समझकर उससे अपना दर्द कहते हुए सिगरेट पी रहा होता या तुम्हारे तीन कमरों वाले किले पर चढ़ाई करने के लिए जमीन के नीचे सुरंगे खोद रहा होता. मैंने ताला लोड़ने वालों की एक पूरी फ़ौज बना रखी थी. उनके चेहरे लाल थे और वो लाल रंग देखते थे तो उनकी आँखों से दूध गिरने लगता था. वो खड़े खड़े माँ बन जाते थे और किसी के भूखे सोने जैसी मजाकिया और अश्लील बातों पर रो-रो कर जान दे सकते थे. तो खैर क्योंकि जमीन और आसमां में से मुझे किसी एक को चुनना था इसलिए मैंने नदी को चुना और शहर के एक बदनाम पुल पर पहुँच गया. वहाँ हवाएं ज़ख़्मी पड़ी हुईं थीं और सूरज रो रहा था जैसे कोई किसी को आखरी बार देख कर रोता है. सूरज ने मुझसे कहा, मत जाओ. मैंने कहा, जाने दो. तो वो बोला, मेरे जाने के बाद चले जाना. कोई अंतिम बार आपसे कुछ मांगें तो दे देना चाहिए. इसलिए मैंने सूरज का दिल रख लिया और वहीँ पुल से सूरज का डूबना देखता रहा. चाँद की फिकर तो थी नहीं मुझे क्योंकि तुम्हारे आने के बाद चाँद चला गया था, मेरी जिंदगी से.

मैं वहीँ पुल पर बैठे बैठे अपना घर, जो पुल से आठ किलो मीटर दूर था, आखरी बार देखता हूँ. घर में माँ उदास बैठी है और रेडियों पर समाचार में, बाढ़ में डूबे लोगों की मौत की खबर हरमुनियम पर गाई जा रही है और माँ की दिमाग पर कोई लाल रंग से लिख रहा है. कल क्या खायेंगे ? क्या बनायेंगे ? वो चाहती है कि मेरी सरकारी नौकरी लग जाए और उसके दिल में गहरा काल धुंआ उठता है. पिता जी इस बार भी नहीं थे, बहन थी सपनों से घिरी बदहवास, खुद से पूछ रही थी शादी किसे कहते हैं ? छोटा भाई पसीने के दलदल में धंसा है और हर सांस पर कसम खाता है कि वो इस दलदल से जरूर बाहर आएगा. वो समय और देवताओं को ललकार रहा है. मुझे डर लगता है और मैं कहता हूँ, बेटा! ऐसे नहीं कहते. वो मुझसे कुछ नहीं कहता.
तुम्हारे घर भी जाता हूँ मैं, वहीं पुल पर बैठे बैठे. तुम्हारे घर के सारे दरवाजे बंद हैं और सब पर सौ-सौ ताले लगे हैं. मैं बाहर खड़ा रहता हूँ कि शायद तुम दिख जाओ और मैं तुमसे पूछ सकूं कि जमीं और आसमां में से मुझे दोनों थोडा-थोडा नहीं मिल सकता क्या ? पर तुम नहीं आई और मैं अपनी आँखें तुम्हारी बालकनी पर छोड़ कर पुल पर लौट आता हूँ. अब मैं अँधा हूँ. मुझे कुछ नहीं दीखता. न घर, न माँ, न उसकी चिताएं, न उसकी इच्छाएं, न बहन की शादी, और न भाई का पसीना और न ही वो रेलिंग जिससे ठोकर खाकर मैं नदी में जा गिरा. भीतर मछलियाँ गिटार बजा रहीं थीं और सन्नाटा गा रहा था और मैंने न जाने क्या चबा लिया था. जो मेरे दांत बंद होते जा रहे थे. नसें तन कर सिकुड़ने लगीं थीं.
मेरी आँखों का कुछ हिस्सा दौड़ कर मेरे पास आ गया था और मैंने देखा तुम बर्फ की रजाई ओढ़ कर लेटी हो. तुम मेरा नंबर मिलाती हो पर घंटी जाने से पहले काट देती हो. तुम मुझसे कोई और शेर कहना चाहती हो. जिसमे मजबूरी, बेवफाई, जिंदगी, मौत, याद रखना और भुलाना जैसे शब्द आये और उन्हें पढ़ कर या सुन कर बत्ती बुझा कर रोने का मन करे और कविता लिखने का भी. मरने का मन तो तुम्हारा पहला शेर सुन कर किया था.

मेरी बची हुई आधी आँख भी अब बंद होने लगी थी और मुझसे मेरा सब कुछ छूट रहा था. दिल से लेकर दिमाग तक. चूँकि दिल में एक इंच भी जगह नहीं थी. वहाँ तुमने इत्र वाली स्याही से प्रेम के कई खंडकाव्य लिख छोड़े थे. इसलिए मैंने दिमाग की ओर जाना ज्यादा ठीक समझा. वैसे मेरा दिमाग किसी पुरानी रद्दी डायरी से ज्यादा कुछ नहीं था. जिसमे मैंने तुम्हारी ही एक कहानी को हज़ार तरीके से लिखा था फिर भी वहाँ एक आखरी पन्ना था. जिस पर मैंने बची हुई साँसों की स्याही से लिखा
चाँद सिरहाने रख कर
सोया है एक सपना
कुछ तेरा है
कुछ मेरा है
पर है पूरा अपना
इस सपने से एक दिन सूरज उठ्ठेगा
और रात के उस पार मिलन होगा अपना

रात के उस पार, मेरे घर वाले पुल पर खड़े मेरी लाश का इंतज़ार कर रहे थे. मैं जब लाश की शक्ल में बाहर आया तो माँ को देखकर मुस्कुरा नहीं सका. माँ का बदन पसीने से भीग गया और वो बेहोश हो गयी. भाई को लगा उसे भी मेरी तरह गंगा के भीतर की दुनिया देख लेनी चाहिए पर उसने माँ का चेहरा देखा और रुक गया. बहन ने उसदिन एक भी सपना नहीं देखा पर तुमने छक कर खाए गोलगप्पे, तालों के टैडी बियर को जिगर से लगा कर सोयी और इतना हंसी कि मुझे शर्म आई अपने मरने पर.

तुम्हारा-अनंत 

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