आशुतोष से साभार ...... |
तोड़ कर अलग कर दिया जाता है कवि,
और कविता चबा ली जाती है,
मुंह महकाने के लिए,
अलमारियों के जिन खांचो में किताबों के कंकाल पड़े हैं,
उनमे नमक की अदृश्य बोतलें बहाई गयी है,
ख़ामोशी की ख़ाकी चादर उढ़ा कर ढांक दिया गया है,
उस कातिल खंजर को; कि जिससे कल बेवक्त, वक़्त का क़त्ल किया गया था,
और रोते हुए संगीत को ढोते हुए,
साज की जान निकल गयी थी प्यास से,
कफ़न की जगह पहनाया गया था तिरंगा,
जिससे भाग कर छिप गया था बलिदान और संघर्ष का केसरिया रंग जंगलों में,
हरियाली को लकवा मर गया था
वो किसी बड़े अस्पताल में भर्ती है,
अब उससे मिलने के लिए कार से जाना पड़ता है,
जिसके पास कार नहीं है वो हरियाली से नहीं मिल सकता,
स्वाभिमान कल दो रुपये किलो बिक रहा था,
किसी ने नहीं ख़रीदा उसे,
अशोक के चक्र नीचे आ कर उसने जान दे दी,
अशोक के चक्र को ताज़े-राते-हिंद-तउम्र-कैदे-बमशक्कत हुई है
अब तो तिरंगे में महज उदास सफ़ेद रंग बचा है,
जो कफ़न है,
जन-गण-के मन पर पड़ा हुआ,
कफ़न !
तुम्हारा--अनंत
5 टिप्पणियां:
एक कड़वा सच उतार दिया है आपने कविता में.. टिप्पणी क्या करें।
एक कटु सत्य...बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
Rongte khade kar dene wali rachna .. Kaduve yatharth ko shabd diye hain ...
उफ़ …………एक कडवे सच को उकेरा है।
आज सालों बाद किसी को सल्यूट करने को दिल कर गया..
तो बस हम कर रहे हैं आपको सल्यूट..!
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