शनिवार, अगस्त 30, 2014

लोकतंत्र का त्रिभुज और कविता !!

मेरी चुप पर
एक चांप लगा कर
बनाया तुमने लोकतंत्र का त्रिभुज
जिसके एक बिंदु पर संविधान है
दुसरे पर संसद
और तीसरे पर
संविधान और संसद के जने भ्रम हैं 


संविधान, संसद और भ्रमों से घिरा आदमी
केंद्र में बैठ कर हाशिए को गा रहा है
और मेरे भीतर का कवि
इन सब के नंगे चेहरे को आइना दिखा रहा है
इन्हें इनकी जगह से हटा कर
कविताएँ बैठा रहा है
इसलिए मेरी कविताओं के सर पर सींग
और नाखूनों में बघनहे उग आए हैं

ये कविताएँ प्रेमिकाओं की जगह
माओं के काम आएँगी
जंगलों में लड़ेंगीं, गोलियां चलाएंगी
और जब तुम मासूक और मौसम की बात करोगे
तो तुम्हे और तुम्हारी बातों को घसीट कर
भूख और भात की ओर ले आएंगी


तुम्हारा—अनंत 

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