भूख के भेस में जिंदगी
और जिंदगी की शक्ल में सपने
चलते रहें हैं हमारे साथ
और हम चलने के नाम पर
ठहरे रहे हैं कहीं
भूख और सपनों के बीच
उजाले के भरम में
अँधेरे को चुना है
हर बार, बार बार
और एक गीत
जिसका कोई खास मतलब नहीं होता
भूखे और सपनीले लोगों के लिए
हमने खूब गाया है
उलझन को गूंदा है, चिंता को बेला है
और मजबूरी को सेंक कर खाया है
आजादी के बाद देश ऐसे ही चलते आया है
दर्द का दाग तिलक सा सजाकर
भीतर रो कर बाहर मुस्का कर
खड़े हैं हम फैक्ट्रियों से लेकर खदानों तक
मॉल के स्टालों से लेकर खेतों-खलिहानों तक
हमने जाना है कि दर्द एक जंगल है
जिसमे आग लगी है
हम बाहर निकलने के लिए गीत गा रहे हैं
कविता लिख रहे हैं
और नारे लगा रहे हैं
कभी कभी हम ईश्वर का भी नाम लेते हैं
पर पहले से ज्यादा फंसते जाते हैं
जीना मजबूरी है इसलिए हम जीते हैं
रोटी की ढपली पर जीवन को गाते हैं
चाहने के नाम पर हमने चाहा है
जी भर जीना
पेट भर खाना
और नींद भर सोना
पर बहुत चाहने के बाद भी हम ये कहाँ पाते हैं
पर बहुत चाहने के बाद भी हम ये कहाँ पाते हैं
हम लोग भूख और सपनों के बीच उलझे हैं
समझने के नाम पर बस इतना समझे हैं
तुम्हारा- अनंत
1 टिप्पणी:
maaf karna mitra ...........pr yeh kavita madhaym varg ke liye hai hee nahi. garib varg ki hai
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