tag:blogger.com,1999:blog-35183217020290035002024-03-18T00:48:13.714-07:00करवट Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.comBlogger215125tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-47627853255530929472019-06-01T06:40:00.002-07:002019-06-01T06:41:08.598-07:00आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
दिमाग़ में कई गालियाँ थीं। और दिल में एक बरजोर नदी। दिमाग़ गलियों में उलझ जाता था। वो धुंध के पार जो है उसे देखने को कहता था। दिल मानता ही नहीं था। कहता था, "मंजिल तक जाए बिना रुक नहीं सकता, जो पहाड़ी, रोड़े, ईंट, पत्थर आएंगे, वो मेरे वेग का शिकार होंगे"।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक रात जब दिल अंधे मोड़ से टकरा कर उससे रास्ता तराश रहा था। दिमाग़ ने दिल के कंधे पर हाँथ रख कर कहा कि तुम जिसे मंज़िल मानते हो वो किसी और रास्ते पर है। तुम जितनी दूर उसके पीछे चलोगे। वो उतनी ही आगे उस रास्ते पर निकल जाएगा। या फिर किसी और रास्ते पर।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दिल अब दिमाग़ से लिपट चुका था। आँसू आंखों से बाहर आ कर इस विस्फोट के साक्षी हो रहे थे। यही कोई रात के तीन बजे होंगे। दिमाग़ ख़ामोश था। उसने अपनी बात इतनी बार दोहराई थी कि उसे अब कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दिल बैठा कुछ गुनगुना रहा था। हाँथ में उसके स्वाद बदलने वाली सिगरेट थी और आंखों में सूनापन। दिल हार नहीं मानता। उस रात भी नहीं माना। लेकिन अब वो पहले सा बेसब्र नहीं था। दिमाग़ ने कहा चलो क्या यही कम है कि थोड़ा संभले तो तुम। दोनों खिलखिला के हँसे। सूरज आसमान पर उगा और रात भर इंतज़ार करती नींद ने शिक़ायत की, "आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अनुराग अनंत</div>
</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-55245198622581829662019-06-01T06:38:00.002-07:002019-06-01T06:38:57.655-07:00!! मैं कविता की आग में जल मरूंगा !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सुनों !<br />
मुझे जलने की धुन सवार है<br />
जैसे सवार थी उस बौद्ध भिछुक पर<br />
जो चाइना मुर्दाबाद करते हुए जल गया<br />
या फिर उस स्टूडेंट की तरह<br />
जो तेलंगाना जिन्दाबाद करते हुए मर गया<br />
<br />
मेरे हांथो में पत्थर है<br />
और सीने में गोली<br />
मुझे मारने में तुम्हे मुश्किल से दो मिनट लगे<br />
पर खत्म करने में सदियाँ कम पड़ेंगी<br />
<br />
मैं आवाजों के घेरे में घिरे हुए आदमियों की आवाजों से घिरा हूँ<br />
मेरी चिंता में काली तस्वीरें है<br />
और खून में लिथड़ा एक अँधेरा रो रहा है<br />
<br />
तुम्हारी चिंता में सुनहरे पंख और मरमरी बदन हैं<br />
सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना और शाम का भोजन है<br />
फ़िल्में, गाने, चुटकुले, प्यार की अफवाहें और अश्लील हंसी तुम्हारे चारो तरफ पसरी है<br />
और मेरे चारो तरफ है नारे और खामोश घुटन, सन्नाटा और शोर<br />
<br />
एक आग है, एक नंगी आग है मेरे चारो तरफ<br />
जिसमे मैं जल मरूंगा<br />
सुनो!<br />
मैं जल मरूंगा<br />
जैसे जले हैं मुझ जैसे ही कई<br />
<br />
मेरे जलने की दुपहर तुम कहना<br />
गर्मी कितनी ज्यादा है, अबकी सर्दी बहुत ज्यादा पड़ेगी<br />
थोड़ी सी जम्हाई आएगी तुन्हें<br />
और तुम कहोगे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता<br />
भ्रष्टाचार इस देश को डूबा देगा<br />
<br />
तुम चिंता करना कि<br />
सचिन सौ सेंचुरी मार पायेगा कि नहीं ?<br />
सलमान शादी करेगा कि नहीं ?<br />
तुम भगवान से मनाना<br />
शाहरुख खान कभी बूढा न हो<br />
अमिताभ बच्चन कभी न मरे<br />
राखी सावंत पर तुम चर्चा करना<br />
और निष्कर्ष निकलना कि वो चरित्रहीन है<br />
तुम बेवजह हंसना और रोना<br />
फिर भूल जाना कि आज तुमने क्या कहा था<br />
आज क्या हुआ था या किया था<br />
ताकि तुम कल फिर वही बातें कह सको<br />
तुम कल फिर वही काम कर सको<br />
<br />
और मुझे कल फिर जलना पड़े<br />
<br />
सुनो!<br />
मुझे जलने की धुन सवार है<br />
मैं कविता की आग में जल मरूंगा<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-56016853121742159172019-06-01T06:34:00.000-07:002019-06-01T06:34:06.795-07:00काठ दिल या पत्थर दिल लड़की !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
उस लड़की के हर मैसेज में अपना ख़्याल रखो जैसा संदेश रहता था। वो लड़का जिसका दिल मोम का बना था। कभी नहीं बता पाता था कि उसका ख़्याल तो उसी लड़की के पास रहता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़की का दिल कभी काठ तो कभी पत्थर होता रहता है। बहुत पहले वो नदी और झरने की तरह भी था। था भी कि सिर्फ़ दिखवा ही था कुछ ठीक ठीक नहीं कह सकता वो लड़का। लेखक दूर खड़ा है और सबकुछ ऐसे देख रहा है जैसे किसी कसाई की दुकान के सामने खड़ा कोई तमाशबीन मुर्गे या बकरे को कटते हुए देखता है। एक और लड़का है जिसके दिमाग़ में उसकी प्रेमिका की सगाई पिछले तीन महीनों से हो रही है। कल उसकी सगाई है और वो आज आईएएस का सिलेबस डाउनलोड कर रहा है। उलझन कोसी की बाढ़ की तरह लहरा रही है और कमरा घुटन से भर चुका है। लड़का भाप की तरह सतह से उठता है और अगले ही दम वो आईएएस की कोचिंग में मैनेजर के सामने बैठा हुआ पाया जाता है। 69 हज़ार की बात हुई लड़के ने 2 हज़ार जेब से निकाल का जमा कर दिए। बाकी देता रहेगा कह कर वापस कमरे की तरफ बेहिस कदमों से लौट आया। मोमदिल लड़के ने दही और केले को ब्लेंडर में डाल कर ब्लेंड किया और पपीता खाया। खाने की ज़रूरत उसे इन दिनों नहीं महसूस होती।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब दोनों लड़के आमने सामने हैं। आईएएस की कोचिंग से लौटा लड़का पूछता है, "मैं क्या करूँ" मोमदिल लड़का कहता है उसे भूल जाओ"। जब वो ये कह रहा होता है तो उसे काठ दिल या पत्थर दिल लड़की की याद आती है। फोन उठाता है और उसका नंबर देख कर डायल नहीं करता और इसबीच दूसरा लड़का अपनी प्रेमिका के पिता को फोन मिला देता है। वो उसके पिता से किसी मेमने की आवाज़ में बात करता है और उसके पिता किसी शेर की तरह जवाब देते हैं। अब आईएएस बनने का सपना देखने वाला लड़का उठता है और सगाई वाली जगह जा कर बच्चों की तरह रोते हुए ज़मीन पर लोटने लगता है। मोमदिल लड़का अपने दिल को जलाता है और मोमबत्ती की मद्धम रोशनी से कमरा भर जाता है। लेखक ठहाका मार कर हंसना चाहता है पर जेब से सिगरेट निकाल कर जला लेता है। एक पल को दुनिया ठहर जाती है और अगले ही पल लेखक की कलम की नोंक पर नाचने लगती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अनुराग अनंत</div>
</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-36133813856174924592019-06-01T05:56:00.002-07:002019-06-01T05:56:18.228-07:00मृत्यू सी शांति !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आपको जिस चीज़ की प्रतीक्षा हो जब वो मिल जाती है तो मृत्यू सी शांति मिलती है।<br />
<br />
ग़ज़ब बात करते हो यार, शिद्दत से चाही चीज़ का मिलना और मृत्यू ? कैसी अज़ीब बात कर रहे हो। एकदम बेमेल मिलन है। मन का स्वाद कसैला कर देने वाली बात।<br />
<br />
दो घड़ी ठहर कर उसने कहा- जीवन भी तो बेमेल चीज़ों का ही मिलन है। हर पल मन का स्वाद कसैला होता रहता है। एक बार हँसने से पहले सौ आँसू पीने पड़ते हैं।<br />
<br />
-यू आर सो निगेटिव,<br />
-नो डियर आई एम सो रियल !!<br />
-यू मेक मी डिप्रेस ऑल दी टाइम<br />
-नो, आई टेल माई ट्रूथ टू यू, व्हिच यू डोंट अससेप्ट !!<br />
-आई एम गोइंग।<br />
-आई नेवर होल्ड यू।<br />
<br />
वो चला गया। रात गहरी हो रही थी। घड़ी अपनी धुन में चल रही थी और वो अपनी धुन में सुलग रहा था। गंगा के कछार से राम राम की धुन गूँज रही थी। वो एक साधू था जो एक साल से सोया नहीं था। ये एक प्रेमी था जिसे नींद नहीं आती थी। वो उस लड़की का नाम ऐसे पुकारता था कि कोई सुन ना सके। उसके भीतर के निर्वात में अब बस उस लड़की का नाम ही था। बिस्तर पर निढाल बेबसी के जैसे पड़ा हुआ वो अपने दोस्त की बात याद कर रहा था। एक खाईं सी आत्मा में ख़ुद रही थी। एक गहरी अंधेरी गुफ़ा। जिसमें वो खो रहा था। आप इसे नींद और सपना कहना चाहें तो कह सकते हैं। पर अभी भाषा में इनकी परिभाषा नहीं थी। इनके लिए शब्द रचे जाने थे।<br />
<br />
उसके दिमाग़ में एक चित्र उभरता है। हिरण का शावक भाग रहा है और शेर उसके पीछे पड़ा हुआ है। उसकी शिराओं में जैसे ही ख़ून की रफ़्तार तेज़ होती है। शावक की जगह वो ख़ुद को पाता है और शेर उस लड़की का बाप बन चुका है। उसके हांथों में रिवॉल्वर है। अब उसकी त्वचा पर पसीने की बूँदें फूट आईं हैं। और कदमों में पहिये उतर आएं हैं। चारों तरफ एक घना जंगल है और रास्ते फूटते ओझल होते रहते हैं। वो आदमी चाहे तो गोली मार सकता है पर वो बंदूक की नाल को माथे के बीचोंबीच रख कर मारना चाहता है। वो चाहता है कि मौत उसे छुए, उसकी साँसों में मृत्यू की गर्मी घोलना चाहता है वो आदमी।<br />
<br />
पैर थकने लगे हैं। अब साँस भी टूट रही है। जंगल एक पार्क में बदल गया है। लड़का हाँफते हुए बैठ गया है। सुस्ताते हुए वो पीछे देखता है। अब लड़की के बाप की जगह लड़की है। उसके चेहरे पर ज़न्नत है और लड़के के चेहरे पर ग़ुलाबी रंग। लड़की एकदम पास आती है। लड़के की आँखों में आँख डाल कर देखने लगती है। लड़का इस दुनिया का अब नहीं है। वो भाषाएं भूल चुका है। उसकी चेतना निर्वात में झूलती कोई वस्तु है। लड़की आँखें बंद करती है और लड़के के माथे पर बीचोंबीच चूम लेती है। लड़के का स्वप्न टूटता है। उसमें मृत्यू सी शांति पसर चुकी है। वो अपने उसी दोस्त को फ़ोन मिलता है। फ़ोन नहीं उठता। वो फ़ोन काट कर बुदबुदाता है।<br />
<br />
प्रेम का एक चुम्बन आपकी आत्मा तक शांति भर सकता है। मृत्यू सी शांति। प्रेम आपको ऐसे मारता है कि आप अमर हो जाते हैं।</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-49857861716063875322019-06-01T05:51:00.002-07:002019-06-01T05:51:33.051-07:00अलविदा !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम: तुम मुझे पाना चाहते हो ?<br />
मैं: क्या तुम जाना चाहते हो ?<br />
तुम: अलविदा !!<br />
मैं: जब हम मिले ही नहीं तो विदा कैसी ?<br />
<br />
तुम ख़ुद को वस्तु और देह समझती थी<br />
मेरे लिए तो तुम एक स्त्री थी<br />
चेतना और मन की नदी<br />
जिसके किनारे मैं गा सकता था<br />
जिसमें मैं अपने दुख प्रवाहित कर सकता था<br />
दुनिया से हार कर या युद्ध जीत कर<br />
या भीतर के राक्षस को मार कर या ख़ुद को तुम पर वार कर<br />
मैं राम की तरह तुममें समा सकता था<br />
पर तुम सरयू नहीं बनी<br />
तुम वस्तु बनी<br />
<br />
और वस्तुएं तो बाज़ार में भी मिल सकती हैं<br />
पर नहीं मिलती कोई नदी किसी बाज़ार में<br />
नहीं बिकती चेतना किसी हाट में<br />
नहीं है किसी शो रूम में किसी स्त्री का मन<br />
<br />
एक बात सुनों जाना सबसे ख़तरनाक क्रिया है<br />
कवि केदार ने कहा है<br />
पर जान का जाना, प्रेम का जाना, किसी स्त्री का जीवन से जाना<br />
वस्तुएं आने जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता<br />
ना कवि केदार को<br />
और ना मुझे<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-73779368659887001342019-06-01T05:19:00.002-07:002019-06-01T05:22:25.972-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-13 <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आजकल दिन रात तक पहुंचने का रास्ता मात्र है<br />
रात ?<br />
मेरी रातें ना जाने कब से परिभाषा को तरस रहीं हैं<br />
<br />
तुम जो कलतक एक लड़की थी<br />
आज अंतरिक्ष हो चुकी हो<br />
तुम्हें अवाज़ देता हूँ<br />
तो मेरी अवाज़ कहीं खो जाती है<br />
<br />
एक दिन तुमनें प्रेम से जो एक अँजुरी धूप दी थी<br />
इस अंधेरे से उसी ने मुझे बचा रखा है<br />
अब सुबह उठता हूँ तो डर लगता है<br />
कि कहीं बिच्छुओं पर पैर ना पड़ जाए<br />
हालांकि जाना कहीं नहीं है<br />
पेड़ों को पैरों का कोई काम नहीं होता<br />
<br />
कुंद होते इस समय में जब तुम नहीं हो<br />
और याद जैसी कोई चीज़ चींटियों में बदल चुकी है<br />
प्रेम जिसे मैंने कबूतर समझा था<br />
रीढ़ से शुरु करके ज़िगर तक सबकुछ चबा जाना चाहता है<br />
<br />
मैंने तुम्हारे दिए धूप के एक नन्हें टुकड़े में<br />
चुपके चुपके धार लगानी शुरू कर दी है<br />
जिसदिन इस धूप के टुकड़े की नोंक पर उगेगा चाँद<br />
उसी दिन समय निकाल कर मैं ये कहानी पूरी कर दूंगा<br />
<br />
कविता की आख़री पंक्ति लिखी जाएगी<br />
और सारी अटकी हुई बातें हमेशा के लिए<br />
शांत हो जाएंगी<br />
<br />
इसी तरह विदा होता है कोई जिद्दी आदमी<br />
इसी तरह ख़तम होती है कोई कहानी<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-36886898508518720762019-06-01T05:16:00.000-07:002019-06-01T05:16:13.122-07:00चाँद के दाग गिन लेना !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरी सारी प्रेमिकाएँ सिगरेट की तरह रहीं<br />
भीतर से सुलगती हुईं<br />
और बाहर से राख होती हुईं<br />
<br />
मैंने लगाया उन्हें होठों से<br />
और सांस के साथ उतार लिया ज़िगर में<br />
<br />
आहिस्ते आहिस्ते ख़त्म होतीं रहीं वो<br />
रफ़्ता रफ़्ता घायल होता रहा मैं<br />
नींद आई तो सोने नहीं दिया मुझको<br />
रोना चाहा तो रोने नहीं दिया मुझको<br />
<br />
जब तक रहीं लबों पर टिकीं रहीं<br />
जब नहीं रहीं तो नहीं ही रहीं<br />
पर सिगरेट के ख़त्म होने से कहानी ख़त्म नहीं होती<br />
हर सिगरेट ज़िगर में दाग छोड़ जाती है<br />
<br />
और इसलिए मुझे जब तुम समझना चाहो<br />
चाँद के दाग गिन लेना<br />
<br />
वो जितनी थीं सब की सब कहतीं थीं<br />
मेरा दिल चाँद जैसा है<br />
<br />
जितने दाग हैं चाँद पर उतनी ही सिगरेट पी है मैंने<br />
उतनी ही प्रेमिकाएँ थीं मेरी<br />
उतनी ही मौत मरा हूँ मैं<br />
उतनी ही रात जगा हूँ मैं<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-12569970024458231532019-06-01T05:14:00.000-07:002019-06-01T05:14:03.476-07:00तुम और तुम जैसी स्त्रियां !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम मुक्तिबोध की कविता की तरह थी<br />
समझने में कठीन<br />
लेकिन हर मोड़ पर मोह लेने वाली<br />
<br />
तुम मुझे बात बात पर चाक पर चढ़ा देती थी<br />
मेरी मिट्टी में अलग अलग मूर्तियाँ उभरने लगतीं थी<br />
मैं कील की तरह अपनी छाती में धँसता था<br />
और ख़ुद के खोल को ख़ुद में टिका का टांग देता था<br />
एक बात बताऊँ बहुत दर्द होता है<br />
इस क्रिया में<br />
<br />
ये ऐसे था कि मेरे कानों में जलमृदंग बज रहे हों<br />
और मैं हंसते हुए अपनी ख़ाल उतार रहा हूँ<br />
और कील तो मैं था ही<br />
<br />
इस दोषपूर्ण जगत में मैंने दोष देखना नहीं सीखा था<br />
इसलिए कमोबेश अंधा ही था मैं<br />
इसबात को मैं जानता था कि देखे बिना भी चीजें जानी जा सकती हैं<br />
अवाज़ को टटोल कर, आत्मा को छू कर और किसी के भीतर उतर कर<br />
<br />
तुम जानती हो तुम्हारे भीतर बहुत नम मिट्टी है<br />
शायद बहुत रोई हो तुम भीतर भीतर<br />
मैं गंगा के किनारे का हूँ<br />
इसलिए नम माटी से हृदय लगा बैठता हूँ<br />
मेरी स्मृतियों के पाँव<br />
और मन की नाव उसी तट पर टिके हैं<br />
जहां बैठ कर तुम रोई हो<br />
<br />
हर कविता में कविता हो ये जरूरी नहीं<br />
ठीक वैसे जैसे हर प्रेम में प्रेम<br />
हर हाँ में हाँ<br />
और हर ना में ना<br />
<br />
जीवन श्याम श्वेत कभी नहीं रहा<br />
तो कैसे ऐसे परिभाषा के खांचें जीवन को समेट पाते<br />
मैं जो ये कह रहा हूँ<br />
ठीक इसीसमय<br />
भीतर एक स्त्री पाथ रही है उपले<br />
और मेरे माथे पर पड़ रहे हैं निशान<br />
जब अकेलेपन का अकाल पड़ता है<br />
मैं अपने माथे पर महसूसता हूँ उसी स्त्री की उंगलियाँ<br />
बदलने लगता हूँ उपले में<br />
झोंक देता हूँ ख़ुद को आग में<br />
आग भूख मिटाती है और दुःख भी<br />
आग विदाई का रथ भी है<br />
और दीपक की आभा भी<br />
और विद्वान कहते हैं कि आग मुक्तिबोध की कविता भी है<br />
तो तुम भी तो आग हुई<br />
<br />
एक दिन आएगा जब मैं तुममें समाऊंगा और विदा हो जाऊँगा<br />
जैसे कोई उपला राख होता है अग्नि में<br />
तुमनें और तुम जैसी स्त्रियों ने सृजा है मुझे<br />
तुम्हें और तुम जैसी स्त्रियों को ही अधिकार है<br />
कि मुझे भस्म करें, मिटाएं, राख कर दें<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-77752402297713948922019-06-01T05:12:00.001-07:002019-06-01T05:12:32.790-07:00इच्छा !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरी लापरवाहियों ने गढ़ा मुझे<br />
सलीके की सलीब को ढोने से इनकार किया मैंने<br />
रातों को जागा<br />
और पूरे पूरे दिन नींद और उदासी में काट दिए<br />
<br />
ये कोई अच्छी बात नहीं है<br />
ना कोई आदर्श और ना कोई अनुकरण योग्य कृत्य<br />
<br />
पर ऐसे ही रहे हैं ख़ुद में खोए ख़ुदरंग लोग<br />
ऐसे ही रहे हैं अपने शिल्प का साथ देते लोग<br />
<br />
जीतने के लिए जो ज़रूरी था<br />
सदैव गैरज़रूरी जान पड़ा<br />
अनुशाशन नदी को तालाब बनाता है<br />
ऐसा लगता रहा मुझे<br />
और मैं नदी बनने के लिए हर खांचे को तोड़ कर रोता-मुस्काता रहा<br />
<br />
कोई मुझसे कुछ ना सीखे<br />
मैं ख़ुद से ख़ुद होना सीख रहा हूँ<br />
रोने की कला सीख रहा हूँ<br />
कि मैं रोऊँ तो दुनिया उसे कविता कहे<br />
गीत लगे उन्हें मेरी आह<br />
मैं अपनी बीती कहूँ लोगों को कहानी लगे<br />
मैं जब अपनी प्रेमिका को याद करूँ<br />
लोगों को उनके बिछड़े याद आएँ<br />
<br />
खोते खोते पाते है हम<br />
यही गूँजता है रात के चौथे पहर<br />
और मैं अपनी सारी प्रिय चीजें हथेलियों पर सजा लेता हूँ<br />
<br />
कविता को कविता ही नहीं देखा मैंने<br />
ये एक खूफिया रास्ता रहा है मेरे लिए<br />
जिससे होकर मैं कभी भी फ़रार हो सकता हूँ<br />
सारे पहरों को धता बता सकता हूँ<br />
बेड़ियां निर्थक कर सकता हूँ<br />
जेल को खेल सिद्ध कर सकता हूँ<br />
<br />
इच्छा पाप रहीं हैं<br />
और मैं पापी<br />
इसलिए इच्छाओं के लिए ही जीया<br />
सब इच्छाओं में सबसे ऊपर जो इच्छा है<br />
वो बस ये है कि<br />
मैं तुम्हारी दिल की दीवार पर कोयले से लिखी गई कविता सा उभरूँ<br />
और कोयला मेरी हड्डियों के जलने से जन्में<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-54870086602176783142019-06-01T05:10:00.003-07:002019-06-01T05:10:48.179-07:00ऐसे मरता है रिश्ता !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ज्यादा नहीं बस इतना जानों कि<br />
सबसे पहले मरती हैं बातें<br />
फिर पत्थर होती जाती हैं रातें<br />
फिर ठंडा पड़ता है दिल<br />
फिर मरता है लगाव तिलतिल<br />
फिर रुकने, आने, जाने का अर्थ खो जाता है<br />
फिर बिसुरने लगते हैं हम कि क्या नाता है<br />
फिर एक दिन अचानक हम देखते हैं<br />
वो करोड़ों में एक हो गया<br />
और पता ही नहीं चला कि एक रिश्ता जिसके लिए हम मुस्कुरा के मर सकते थे<br />
बेमौत बेवक्त ना जाने कैसे मर गया<br />
<br />
याद का क्या है वो आती है, नहीं आती है,<br />
फिर कभी अचानक किसी मोड़ पर मिल जाती है<br />
कोई किसी को भूल नहीं पाता<br />
कोई किसी को याद भी नहीं रखता<br />
<br />
ऐसे ही मारते हैं हम अपने हांथों रिश्तों को<br />
और ताउम्र ढोते हैं यादों की किस्तों को<br />
सस्ती तुकबंदियों से कविता नहीं बनती<br />
जिंदगी बिना सस्ती तुकबंदियों के नहीं चलती<br />
<br />
जिंदगी को कविता करने की ज़िद्द घातक होती है<br />
ये बात हर उस कवि को मालूम है जिसने जिंदगी को कविता किया है<br />
जो शिव बटालवी की तरह स्लो डेथ मरा है<br />
<br />
ये को कुछ लिखा है<br />
इसमें कविता तलाशना पत्थर के शहर में फूल खोजना है<br />
ये वो बात है जिसे जानता मै भी हूं, तुम भी जानते हो और वह भी जनता है<br />
जिसने एक नन्हें से मासूम रिश्ते की गर्दन पर अभी अभी कटारी रख दी है।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-8057897362258532292019-05-01T22:50:00.003-07:002019-05-01T22:50:49.360-07:00मेरी उपस्तिथि..!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरी उपस्तिथि ऐसी रही<br />
कि अनुपस्थित ही रहा सदा<br />
प्राथनाएं मुझसे निकल कर<br />
मुझमें समातीं रहीं<br />
और मौन ही रही मेरी सबसे सार्थक परिभाषा<br />
<br />
भाषा में अव्यक्त रहा<br />
और बोलकर कई कई बार ख़ुद को नष्ट किया<br />
समझदारों की तरह जीने से बचने की जिद्द में<br />
समझदारी ही हाँथ लगी हर बार<br />
<br />
जीवन भर दुहराई जाती रही<br />
एक ही कत्थई त्रासदी<br />
और मैं एक ही बिन्दु पर<br />
हर बार कील की तरह ठोंक दिया गया<br />
<br />
जब जलेगी मेरी चिता तो<br />
अलिखित प्रेम पत्र महकेंगे<br />
धुएं की जगह तुम्हारी स्मृतियाँ उड़ेंगी आकाश में<br />
वर्षा होगी और बदल गरज कर कहेंगे<br />
तुमने मुझे सदैव ग़लत ही समझा<br />
तुम मुझे कभी नहीं समझे !!<br />
<br />
पीड़ा कुछ नहीं है<br />
शिवाय सांस और धड़कन के<br />
<br />
मैंने हर आख़री बात इसलिए कही<br />
कि पहली बात दुहरा सकूं।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-16743023158731698652019-04-17T01:36:00.002-07:002019-04-17T01:36:32.098-07:00तो समझो फिर 'झुक गया देश' !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उधर जिधर हत्यारे हैं<br />
गर्व में तने गर्वित मस्तक हैं<br />
चंदन से सुशोभित भाल है<br />
तन पर मरे हुए सिंहों की खाल है<br />
उधर इंसान नहीं<br />
इंसानों के ख़िलाफ़ साजिशें है<br />
उधर अगर 'झुक गया देश'<br />
तो समझो फिर 'झुक गया देश'<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-64308846346381388042019-04-17T01:33:00.002-07:002019-04-17T01:33:15.665-07:00मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।<br />
<br />
अपराधों की सूची में<br />
सबसे जघन्य अपराध था<br />
"चाहत" से किसी कविता को शुरू करना<br />
ये बात मैं जानता था<br />
फिर भी मैंने 'चाहत' से कविता शुरू की<br />
कि मैं चाहता था कि<br />
मुझसे पूछा जाए<br />
जब गर्मियों की किसी शाम मरी मेरी माँ<br />
और पिता घर पर नहीं थे<br />
तो मैं कहाँ था<br />
<br />
मुझसे पूछा जाए कि प्यार जब तिल तिल कर मर रहा था<br />
और उसने हल्के से रोते हुए कहा<br />
कि चलो भाग चलते हैं<br />
उस वक़्त मैं कहाँ था ?<br />
<br />
मुझसे पूछा जाए जब लिखना था कुछ बेहद जरूरी<br />
और मैं नहीं लिख सका<br />
उस वक़्त मैं कहाँ था<br />
<br />
मुझसे पूछा जाए<br />
जब उतर जाना चाहिए था दिल के बहुत गहरे<br />
और मैं नहीं उतरा<br />
उस समय मैं कहाँ था<br />
<br />
जब मेरी कलाइयों में हथकड़ी और मुंह पर नारे होने थे<br />
उस वक़्त मैं कहाँ था<br />
<br />
मैं कहाँ था ?<br />
तब जब मुझे बढ़ कर शहीद हो जाना चाहिए था<br />
या जब हवन हो जाना था मुझे<br />
मैं कहाँ था ?<br />
तब जब हर इंतज़ार का मुकम्मल जवाब देना था मुझे<br />
<br />
मैं चाहता था<br />
मुझसे हज़ार सवाल पूछे जाएं<br />
पर दुःख और दर्द इसी बात का है<br />
कि मुझसे महज़ एक सवाल पूछा गया<br />
"चौरासी में कहां थे ?"<br />
<br />
इस समय जब बहुत कुछ हासिल हो चुका है<br />
ऐसा अख़बार, टीवी चैनल<br />
और देश का राजा बोलता है<br />
तो मैं अपनी हथेली देखता हूँ<br />
जहां मुहावरे अश्लील हँसी हँस रहें हैं<br />
हमारे इस स्वर्णिम समय का हासिल<br />
महज़ चंद मुहावरे हैं<br />
"मार कर लोया कर देंगे"<br />
"ऐसा गायब करेंगे कि नज़ीब हो जाओगे"<br />
"रोहित वेमुला बना दिये जाओगे"<br />
<br />
मैं अपनी हथेली देखता हूँ<br />
और फिर अपने समय और अपनी भाषा के विस्तार को देखता हूँ<br />
सिमटी हुई भाषा और सिकुड़ा हुआ आदमी कितना विराट लगता है<br />
<br />
इतना विराट की ढंग से न सवाल पूछता है<br />
और ना पूछने देना चाहता है<br />
<br />
मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-41936021225515176182019-04-17T01:32:00.000-07:002019-04-17T01:32:08.280-07:00एक ग़लती फिर से हो गयी है !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक ग़लती फिर से हो गयी है !!<br />
<br />
मेरी एक कविता खो गयी है<br />
एक गठरी जिसमें<br />
एक टुकड़ा दुख<br />
एक टुकड़ा दर्द<br />
एक टुकड़ा याद<br />
एक टुकड़ा बात<br />
एक टुकड़ा दिन<br />
एक टुकड़ा रात<br />
बांध दिए थे मैंने<br />
<br />
कई दिन अलसाए अलसाए बिताए<br />
रोते हुए, समय के ख़िलाफ़ लड़ते हुए<br />
समय नष्ट करते हुए<br />
अपने भीतर की बिखरन बुहारते हुए<br />
कीमती, बेशकीमती और ग़ैरकीमती समान जलाते हुए<br />
जब बीता समय का एक टुकड़ा<br />
तब कहीं एक अदद कविता निकली<br />
भीतर की बंजर ज़मीन से<br />
<br />
वही कविता खो गयी है<br />
एक ग़लती फिर से हो गयी है।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-20604831379093568872019-04-17T01:30:00.002-07:002019-04-17T01:30:19.888-07:00मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम चाँद के वक्र पर जान दे सकते हो<br />
और चाँद का वक्र मेरी जान ले सकता है<br />
क्या जान देना और जान लेना<br />
एक जैसी बात ही है क्या ?<br />
नहीं! क़तई नहीं<br />
ठीक वैसे, जैसे<br />
समंदर का पानी नमकीन होता है<br />
और आंसू खारा<br />
<br />
मेरा सब कुछ लिखना बर्बाद है<br />
और तुम सोच भी लो यदि तो कविता हो जाए<br />
<br />
दरअसल सारा खेल तुम्हारी आँखों में है<br />
तुम कालीदास की तरह बादलों को देखते हो<br />
और बादल मेघदूत हो जाते हैं<br />
और मैं किसानों की तरह बादल को देखता हूँ<br />
और बादल मुंह बिचकाते हैं।<br />
<br />
तुम समय निकाल कर फ़िल्म देखने चले जाते हो<br />
और मैं समय के निकल जाने पर पछताता हूँ।<br />
चाँद तुम्हारे छत पर चढ़ कर ईद हो जाता है<br />
और चाँद मेरी छत पर चढ़ता है और कूद कर जान दे देता है<br />
<br />
मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-46805125335279792922019-04-17T01:29:00.002-07:002019-04-17T01:29:13.179-07:00इसके अलावा बाकी सब मस्त है !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वो जब मुझमें उतरती है<br />
मैं नदी की तरह बहता हूँ<br />
वो नाव की तरह तिरती है<br />
<br />
मैं नींव की तरह दबता हूँ<br />
वो पुरानी इमारत की तरह गिरती है<br />
डरना उसके लिए खाना खाने जितना जरूरी है<br />
वो दिन में तीन बार नियम से डरती है<br />
इस तरह आप अंदाज़ लगा सकते हैं<br />
कि एक बार जीने के लिए वो कितने बार मरती है<br />
<br />
और हां एक बात और....<br />
<br />
जिनके लिए दुख का मतलब<br />
ग्लिसरीन वाले आँसू हैं<br />
उनकी फैक्ट्री में आजकल<br />
समय के सांचे गढ़े जा रहे हैं<br />
इसीलिए संवेदना के चित्र<br />
सुनहले फ़ोटो फ्रेमों में मढ़े जा रहे हैं<br />
लोग संवेदना के मरने पर दुखी हैं<br />
और अपने अपने लिए ग्लिसरीन का इंतजाम करने में व्यस्त हैं<br />
<br />
इसके अलावा बाकी सब मस्त है<br />
चल यार फिर कभी बात करता हूँ<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-20668277061413684462019-04-17T01:27:00.001-07:002019-04-17T01:27:39.435-07:00"ईश्वर" गिर कर मर गया...!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
उस रात का सपना ऐसा था जिसने दिन की हक़ीक़त बदल दी। अब मैं माँ को याद करता था तो उसके पल्लू में बंधे सिक्के याद आते थे। उसकी देर रात लगाई गई खाने की थाली, उसके गाल में पिता के थप्पड़ के निशान और उसकी चिता याद आती थी। मेरी माँ टुकड़ों में बंट गई थी। पिता साबूत पत्थर की तरह थे जिसपे जब तब मैं सर दे मारता था। तुम जो कभी झरने की तरह लगती थी अब रेत लगने लगी थी। मैं शीशे में खुद को देखता था तो एक तड़पती हुई मछली दिखती थी या अंधेरे में सिसकती हुई बच्ची। सब कुछ बदल गया था। आदमी सड़क पर चलते चलते भाप की तरह उड़ जाते थे और मशीनें राजाओं की तरह आदेश देतीं थीं। सारी समस्या का हल था मेरे पास था। जिसे लोग नींद की गोलियां कहते थे और मैं जिंदगी का दूसरा नाम। मेरे ज़हन में हमेशा बर्फ़ गिरती रहती थी। और एक तेज़ रफ़्तार गाड़ी गुजरती और एक बच्चा सड़क पार करने की फ़िराक़ में दब कर मर जाता था। इस तरह जितनी बार मैं सुकून से बैठता उतनी बार एक बच्चे की मौत हो जाती थी। उस रात सपने में मैंने देखा कि गली की सबसे बुजुर्ग बुढ़िया ने सारी जिंदगी की कमाई से जो घर बनाया था जिसका नाम उसने "नज़र" रखा था। उसकी छत से उसका पागल बेटा "ईश्वर" गिर कर मर गया। लोगों ने कहा "बुढ़िया की नज़र से ईश्वर गिर कर मर गया। मेरे साथ जो हुआ था उसका क्या नाम है, उसे क्या कहा जायेगा। ये लोगों को तय करना था। किसी दिन समय निकाल कर वो लोग ये भी तय कर देंगे शायद।<br />
<br />
<br />
अनुराग अनंत </div>
</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-23682438812500636782019-04-17T01:18:00.002-07:002019-04-17T01:18:28.507-07:00डरो मत !!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
'ड' से डरो मत<br />
<br />
'र' से रास्ते हमेशा मौजूद होते हैं, बस उन्हें खोजना होता है।<br />
<br />
'म' से मौत को सत्य कहने वाले लोग झूठे, भटके और असफल व्यक्ति हैं। मौत कुछ नहीं होती।<br />
<br />
'त' से तभी जिया जा सकता है जब मृत्यू का भय ना हो, और जीवन का लोभ भी।<br />
<br />
और इतनी बात का कुल जमा ये कि<br />
<br />
डरो मत !!<br />
<br />
क्योंकि विकल्पहीन व्यक्ति के पास डरने का विकल्प नहीं होता।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-19065284342175313622019-04-17T00:22:00.000-07:002019-04-17T00:26:02.777-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-12<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मैंने अपनी नींद तुम्हारी आँखों के नाम कर दी<br />
और तुम्हारी आँखों में दुहरी नींद तैरती रही<br />
दोगुना नशा<br />
दोगुनी मादकता<br />
चंचलता कितनी गुनी थी, पता नहीं !<br />
पर इतना मालूम है<br />
तुम्हारी आंख वो मिथकीय तालाब है<br />
जिसमें झाँकते ही डूबकर मर जाने का मन करता है<br />
<br />
तुम्हारी आँखों में ना जाने कितने डूब कर मरे होंगे<br />
तुम्हारी आँखों में ना जाने कितनों की नींद बहती है<br />
तुम्हारी आंखें ना जाने क्या कहतीं हैं।<br />
<br />
अनुराग अनंत<br />
<br /></div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-86652557803045100192019-04-17T00:18:00.003-07:002019-04-17T00:25:43.536-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-11<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम्हारी याद किसी भेड़िये की तरह<br />
उलझन की झाड़ियों से कूद कर वार करती है ज़िगर पर<br />
और मैं रिसते हुए लहू की लकीर बनाते हुए<br />
रेंग कर नींद तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ<br />
पीछे पीछे तुम्हारी याद मेरे पस्त होने के इंतज़ार में<br />
लहू की लीक पर, ख़ून सूंघते हुए मुझतक पहुँचती है<br />
और नींद तक पहुँचने से पहले ही मेरा शिकार कर लेती है<br />
<br />
आंखों से भाप की तरह उठती रहती है कराह<br />
और आंखों के नीचे स्याही सी जमा होती रहती है मेरी पीड़ा<br />
देखने वाले देखते हैं और पूछते हैं<br />
"कल फिर तुम सारी रात नहीं सोए ना ?"<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-4587953318267664552019-04-17T00:16:00.003-07:002019-04-17T00:25:19.309-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-10<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मैंने सुना है लगातार जागने से आदमी पागल हो जाता है<br />
सुना ये भी है कि पागल आदमी लगातार जगता रहता है<br />
और बहुत याद करता हूँ तो ये भी याद आता है<br />
कि उसने एक बार कहा था<br />
जीने के लिए पागलपन ज़रूरी है<br />
और पागलपन के लिए जागना<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-63264517019451870472019-04-17T00:14:00.001-07:002019-04-17T00:24:50.345-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-9<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक बेचैन पागल की टूटी चप्पल<br />
एक अनाम कवि का मटमैला झोला<br />
एक प्रेमी की अनकही बात<br />
एक आवारा लड़की की अंगड़ाई<br />
एक सुहागन की रख कर भूली हुई कोई चीज़<br />
एक बूढ़े की कंठ से फूटती मौत की मनुहार<br />
एक माँ की पनीली आंखें<br />
और एक उजाड़ मंदिर की भग्न देवी प्रतिमा<br />
मेरी रातों में काटें बिछाती फिरतीं हैं<br />
मेरी नींदें इन्हीं से टकरा कर गिरतीं हैं<br />
<br />
अनुराग अनंत </div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-3816313370897568222019-04-17T00:12:00.001-07:002019-04-17T00:24:26.753-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-8<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मेरी नियति जागते रहना है<br />
मेरी किस्मत भागते रहना है<br />
मेरी मेरुदंड पर उग आया है पहाड़<br />
सोने के लिए लेटना चाहता हूँ तो लेट नहीं सकता<br />
मेरी आँखों में छीपा रोता रहता है कोई<br />
धड़कनें बनातीं रहतीं है खाइयाँ<br />
बदहवास दौड़ कर आता है कोई<br />
और सतह पर आख़री बुलबुले के साथ ही<br />
वो भी खो जाता है कहीं<br />
यही क्रिया दोहराई जाती है रात भर<br />
अपने ही ज़िगर को खोदता हूँ<br />
अपनी ही आत्मा में कूदता हूँ<br />
मुंडेर पर ढेर होता रहता हूँ<br />
सड़कों पर देर रात कुत्तों से बच कर टहलता हूँ<br />
दूर चौराहे तक जाता हूँ<br />
एक सिगरेट, एक चाय पी कर आता हूँ<br />
मानों यही करने के लिए लिया हो जन्म<br />
मानो ये ना किया तो मर जाऊंगा<br />
<br />
अनुराग अनंत </div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-46419439719147185812019-04-17T00:06:00.004-07:002019-04-17T00:23:57.823-07:00नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-7<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नींद की नौ कविता<br />
<br />
1.<br />
तुम ख़्वाब की शक़्ल में<br />
मेरी नींद की जासूसी करती हो।<br />
इसलिए रात भर जाग कर मैं अपनी नींद<br />
आंखों के नीचे की स्याही, चेहरों की झुर्रियों और अपनी खीज़ में छुपा देता हूँ।<br />
<br />
2.<br />
जागता हुआ आदमी<br />
ट्रेडमील पर भगता हुआ आदमी होता है<br />
<br />
3.<br />
जब रात नहीं कटती<br />
तो घटनाएं घटती हैं।<br />
घटने को तो ये भी घटना घट सकती थी<br />
मेरी कलाई की नस कट सकती थी।<br />
<br />
4.<br />
अधूरी बात की तरह गुज़री पूरी रात<br />
बह भी गयी, रह भी गयी।<br />
<br />
5.<br />
रात भर नींद की अदालत में मुक़दमा चलता है<br />
मैं सारी रात कठघरे में खड़ा रहता हूँ।<br />
"मैं सोना चाहता हूँ"<br />
रोते हुए नींद से कहता हूँ।<br />
<br />
6.<br />
तुम्हारा ख़याल नुमाया होता है<br />
और नींद ग़ायब हो जाती है<br />
"तुम्हारा ख़याल" नींद का दुश्मन है<br />
"नींद" तुम्हारे ख़याल की मारी।<br />
<br />
7.<br />
ढाई कदम की रात थी<br />
और ढाई अक्षर का तेरा नाम<br />
कल सारी रात तेरा नाम लेने में कट गई।<br />
<br />
8.<br />
मेरी नींद घायल है<br />
रेंग कर मुझ तक आती है<br />
और तब तक सुबह हो जाती है।<br />
<br />
9.<br />
कल रात फिर सारी रात याद करता रहा<br />
कल रात फिर नींद का नाम याद नहीं आया।<br />
<br />
अनुराग अनंत</div>
Anurag Anant http://www.blogger.com/profile/15882565252484893307noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3518321702029003500.post-81380957503216758792019-04-17T00:05:00.004-07:002019-04-17T00:05:27.900-07:00नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-6<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रात वो पुड़िया है<br />
जिसमें जंग लगे पुराने ब्लेड के टुकड़े लपेटे गए हैं<br />
जहाँ कटी उंगली का दर्द कैद है<br />
जहाँ घाव में डालने के लिए ज़रूरी नामक सहेजा गया है<br />
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नींद वो अभागी भिखारन है<br />
जो दिन भर भीख मांग कर रात को भूखी सो जाती है<br />
नींद वो बच्ची है जो हर बार मेले में खो जाती है<br />
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और मैं वो बात हूँ<br />
जो पूरी होने से पहले काट दी जाती है<br />
मैं वो आंख हूँ<br />
जो काँच की किरचों से पाट दी जाती है<br />
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अनुराग अनंत</div>
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