बहते हुए पानी में भरम का चराग था.
बेदाग़ समझ बैठा जिसे, उसके दामन में दाग था,
ज़िन्दगी अपनी सौंपी थी, जिसे मोहब्बत के नाम पर,
जालिम था, वो जुल्मी था, बड़ा ज़ल्लाद था,
हम जिसे इश्क समझ कर फ़साना बुनते रहे,
वो तो उसके लिए बस एक अदना मजाक था,
मेरा दिल कुछ भी नहीं था उसके लिए,
राह पर पड़ा बस इक ढेर-ए-ख़ाक था,
आँखों से बह कर सूख गया जो गालों की रेत पर,
वो कोई कतरा-ए- अश्क नहीं था, मेरा ख्वाब था,
मिल कर उससे वो लज्जत न मिली, मिलने की,
ये दिल बेवजह उससे मिलने को बेताब था,
जला दिया जिसने मुझे और मेरे अरमानों को,
वो हुस्न का एक बहता हुआ दरिया-ए-तेज़ाब था,
तुम्हारा--अनंत
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