इस भीड़ में चल चल कर लोग थक जाते है,
उन्हें पता भी नहीं चलता और वो बिक जाते हैं,
झुकने का चलन कुछ इस कदर से चल निकला है यार,
कि जो तूफानों में नहीं झुकते थे, अब झोंको में झुक जाते हैं,
कोई मजलूम कुछ बोले, तो उन्हें बदतमीज़ी लगती है,
वो दौलत के नशे में, जो मुंह में आए बक जाते हैं,
संभल कर चलते हैं, लोग राह-ए-खार पर ''अनंत''
पर जब पैरों तले गुल पड़ते है तो बहक जाते हैं,
डर लगता हैं हमें अय्यारों की इस बस्ती में,
यहाँ खुली बाहों के चमन, कफ़स में बदल जाते हैं,
कुर्सी के आशिकों ने तुर्फ़ा तरीके तलाशे खूब,
कभी हिन्दू के घर जलते है, कभी मुस्लिम के घर जल जाते हैं,
कोई मिले यहाँ जो समझदार-ओ-वफादार मुझको,
मैं पूछूं, जो बरसते हैं समन्दरों पर, कैसे रेगिस्तान पर चुक जाते हैं,
तुम्हारा--अनंत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें