दिल्ली में बलात्कार नाम की एक घिनौनी कायरता की शिकार हुई और सम्पूर्ण पित्रसतात्मक मानसिकता में कैद समाज को झझकोर देने वाली, मेरी जुझारू दोस्त के संघर्ष के पक्ष में खड़ी ये कविता.
सब कहते हैं कि तुम मर गयी
दम तोड़ दिया तुमने
तुम बच भी जाती तो एक जिन्दा लाश बन कर जीती
संसद में “महिला “स्वराज” की एक प्रतिनिधि ने कहा था.
और तुमने पाया था कि एक महिला भी पुरुष हो सकती है.
जब तुम लड़ रही थी उस सरहद पर
जहाँ मर्द और औरत के बीच दिवार खड़ी है.
और औरत की आज़ादी उसकी नींव में गड़ी है
तब देश की सब औरतों ने पसारे थे पंख
निकाले थे पाँव, चीख कर चिल्लाईं थी.
कि हमें ये दिवार ढहानी है
और दीवारों की ओर दौड कर टकरा गईं थी
उलझ गईं थी उस दिल्ली से जो पुरुष है
जब तुम लड़ रही थी,
किसी दुर्गा, काली, चंडी की तरह नहीं,
बल्कि खुद की तरह
तब घर से ले कर बाहर तक लहराई थी
वो कलाईयाँ, मुट्ठियाँ बन कर
जो तब से पहले महज़ चूडियाँ खनकाती थी
सारे फांसी के फंदे चटक कर गिरने वाले थे
सारे पिंजरे टूटने वाले थे
और वो परछाइयाँ जल कर भष्म होने वाली थीं
जिनमे आधी आबादी कैद है
कि तुमने शरीर का चोला उतर दिया
आवाज़ बन गयी,
शरीर की बेड़ियाँ काट कर रूह हो गयी तुम
नदी की तरह
हवा की तरह
आग की तरह
अब लड़ोगी तुम, शरीर की बंदिशों से आजाद हो कर
मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ कि वो मर नहीं सकती
जो आधी आबादी के पंख में धार कर सकती हो
पाँव की बेड़ियों पर हथौड़े से वार कर सकती हो
हर पल सांस की तरह मौत देने वाले
फांसी के फंदे को तोड़ कर गिरा सकती हो
वो मर नहीं सकती
मैं जानता हूँ
तुम एक शरीर छोड़ कर आधी आबादी हो गयी हो
तुम इस लड़ाई के अंतिम क्षण तक लड़ोगी
मैं जानता हूँ
तुम कहीं नहीं गयी हो
मैं जानता हूँ
तुम उन सब में जिन्दा हो
जो जिंदगी को बराबरी का मतलब देना चाहते है
मैं जानता हूँ
तुम मर नहीं सकती
तुम्हारे संघर्ष से प्रेरणा लेता और तुम्हे सलाम करता तुम्हारा दोस्त-अनुराग अनंत
http://www.jagran.com/news/national-timeline-of-delhi-gangrape-9989114.html
सब कहते हैं कि तुम मर गयी
दम तोड़ दिया तुमने
तुम बच भी जाती तो एक जिन्दा लाश बन कर जीती
संसद में “महिला “स्वराज” की एक प्रतिनिधि ने कहा था.
और तुमने पाया था कि एक महिला भी पुरुष हो सकती है.
जब तुम लड़ रही थी उस सरहद पर
जहाँ मर्द और औरत के बीच दिवार खड़ी है.
और औरत की आज़ादी उसकी नींव में गड़ी है
तब देश की सब औरतों ने पसारे थे पंख
निकाले थे पाँव, चीख कर चिल्लाईं थी.
कि हमें ये दिवार ढहानी है
और दीवारों की ओर दौड कर टकरा गईं थी
उलझ गईं थी उस दिल्ली से जो पुरुष है
जब तुम लड़ रही थी,
किसी दुर्गा, काली, चंडी की तरह नहीं,
बल्कि खुद की तरह
तब घर से ले कर बाहर तक लहराई थी
वो कलाईयाँ, मुट्ठियाँ बन कर
जो तब से पहले महज़ चूडियाँ खनकाती थी
सारे फांसी के फंदे चटक कर गिरने वाले थे
सारे पिंजरे टूटने वाले थे
और वो परछाइयाँ जल कर भष्म होने वाली थीं
जिनमे आधी आबादी कैद है
कि तुमने शरीर का चोला उतर दिया
आवाज़ बन गयी,
शरीर की बेड़ियाँ काट कर रूह हो गयी तुम
नदी की तरह
हवा की तरह
आग की तरह
अब लड़ोगी तुम, शरीर की बंदिशों से आजाद हो कर
मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ कि वो मर नहीं सकती
जो आधी आबादी के पंख में धार कर सकती हो
पाँव की बेड़ियों पर हथौड़े से वार कर सकती हो
हर पल सांस की तरह मौत देने वाले
फांसी के फंदे को तोड़ कर गिरा सकती हो
वो मर नहीं सकती
मैं जानता हूँ
तुम एक शरीर छोड़ कर आधी आबादी हो गयी हो
तुम इस लड़ाई के अंतिम क्षण तक लड़ोगी
मैं जानता हूँ
तुम कहीं नहीं गयी हो
मैं जानता हूँ
तुम उन सब में जिन्दा हो
जो जिंदगी को बराबरी का मतलब देना चाहते है
मैं जानता हूँ
तुम मर नहीं सकती
तुम्हारे संघर्ष से प्रेरणा लेता और तुम्हे सलाम करता तुम्हारा दोस्त-अनुराग अनंत
http://www.jagran.com/news/national-timeline-of-delhi-gangrape-9989114.html
1 टिप्पणी:
नहीं मारी है वो लड़की .... न जाने कितनों के मन में चिंगारी बन सुलग रही है ...
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