जिस पथ पर शूल बिछे न हों ,
उस पथ पर चलना क्या चलना ,
जो काम कठिन न हो प्रियवर ,
उस काम को करना क्या करना ,
जो मरुथल में नदी बहाते हैं,
पर्वत की धूल उड़ाते हैं,
कंटक का मुखडा चूम -चूम ,
कंटक को फूल बनाते हैं ,
कुछ ऐसे वीरों के कंधे पर देश कोई चलता है ,
रक्त चाट कर महा पुरूषों का समाज कोई बदलता है ,
जीवन लघु से लघुतर है ,
इसके बीत जाने पर हाँथ का मलना क्या मलना ,
जिस पथ पर शूल बिछे न हों ,
उस पथ पर चलना क्या चलना,
सूरज उगता है, तम बह जाता है,
जो मन में आता है ,कह जाता है ,
सिन्धु तीर पर बना स्वप्न महल,
खुद- ब- खुद ढह जाता है ,
जो ह्रदय लगन से हीन हुआ ,
समझो वो पतित मलीन हुआ ,
वो शक्ति केंद्र ,वो महा बली ,
बस उसी दिवस से दीन हुआ,
जिस दीप से तम मिटा नहीं,
उस दीप का जलना क्या जलना ,
जिस पथ पर शूल बिछे न हों,
उस पथ पर चलना क्या चलना ,
तुम्हारा-- अनंत
2 टिप्पणियां:
वृक्ष हों भले खड़े हों घने हों बड़े ,पत्र एक छाहँ भी मांग मत-मांग मत अग्निपथ - अग्निपथ................ तू न रुकेगा कभी,तू न थमेगा कभी कर शपथ - कर शपथ अग्निपथ-अग्निपथ... इसी तरह अपने 'अनंत ' 'अनुराग' से अनंत ब्रम्हांड को तुम प्रकाशित करते रहो..............
सार्थक संवेदनशील रचना ...
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