लापता हिंदुस्तान का,
पता मिला चाय स्टॉल पर,
जहाँ छोटू के गाल पर पड़ा था तमाचा,
और मालिक की डांट की शक्ल,
हू-ब-हू मिलती पाई गयी थी,
राष्ट्रगान से,
एक भटकती हुई हवा,
चीखती हुई,
निकल गयी थी,
टूटा हुआ गिलास= फूटी हुई किस्मत.....
मन करा था,
नाचूँ पाइथागोरस की तरह,
और गाऊं,
लम्ब पर बना वर्ग,
और आधार पर बने वर्ग का योग,
कर्ण पर बने वर्ग के बराबर के बराबर होता है,
पर मैंने कहा था, एक गिलास चाय दो भाई !
सडे हुए पानी पर,
तैरता हुआ मच्छर,
चला आया कान तक,
गरीब इंसान और मच्छर की आवाज़,
एक सी लगती है,
तभी कान में पड़ते ही,
दोनों को मरने का मन करता है,
मरे हुए मच्छर के,
जिन्दा लहू ने, मुझसे बताया !
कि वो मच्छर का लहू नहीं है,
वो छोटू की माँ का खून है,
जिसे मच्छर ने तब चूसा था,
जब वो दबी हुई थी,
एक पहाड़ के नीचे,
और पहाड़ मदमस्त खेल रहा है,
उसके ऊपर......
इस खेल के लिए तय हुए थे 150 रु०
मिले थे 100 रु०,
50 रु० के बदले,
मिली थी डांट,
खेलने के बाद
पहाड़ अक्सर डांट दिया करता है,
छोटू की माँ को !
मन किया था चूम लूं उसके खून को,
या भर लूं मांग,
हो जाऊं सुहागन,
पर मैंने पोछ दिया उसे बेंच पर,
तब तक सूखने के लिए,
जब तक छोटू उसे साफ न करे !
एक मखमली गंध,
अपना पथरीला लिबास पहने,
बेख़ौफ़ नाक में गुस गयी थी,
पकड़ कर गिरेबान,
निकला उसे बीच नाक से,
सहमी हुई आवाज़ में उसने कहा था !
भाग आई हूँ, उस कूड़े के ढेर से,
जिसके पार एक मासूम बकरी को,
काट रहे थे कसाई बारी-बारी से,
बिना कपड़ों के कूड़े में लिथड़ी हुई बकरी छोटू की बहन है,
आप चाहें तो इसे,
किसी आम आदमी की तरह,
कूड़े के जंगल में मंगल कह सकते हैं,
या खबरिया चैनल की तरह,
गैंग रेप भी कह सकते हैं,
पर मैंने तो इसे संविधान की प्रस्तावना कहा था!
एक गगन चुम्बी इमारत में,
ईंट जोड़ती हुई पतंग,
कट कर गिरी थी नीचे,
सभी लोगों की साथ,
दौड़ा मैं भी,
कि सब से पहले लूटूंगा मजा उस पतंग का,
किसी ने उस पतंग को, बेचारा मजदूर कहा था,
किसी ने बेचारा गरीब,
किसी ने कहा था, लापरवाह आदमी!
एक चाय वाले ने कहा था;- ये छोटू का बाप है,
पर मैंने कहा था :-
ये अशोक की लाट का सिंह है,
जो अभी- अभी गिर कर मर गया,
मेरे कहने का कोई मतलब नहीं है,
क्योंकि मैं संसद का रास्ता नहीं जनता,
आप चाहें छोटू को छोटू समझ सकते हैं,
मैं तो उसे हिन्दुस्तान समझता हूँ,
तुम्हारा --अनंत
पता मिला चाय स्टॉल पर,
जहाँ छोटू के गाल पर पड़ा था तमाचा,
और मालिक की डांट की शक्ल,
हू-ब-हू मिलती पाई गयी थी,
राष्ट्रगान से,
एक भटकती हुई हवा,
चीखती हुई,
निकल गयी थी,
टूटा हुआ गिलास= फूटी हुई किस्मत.....
मन करा था,
नाचूँ पाइथागोरस की तरह,
और गाऊं,
लम्ब पर बना वर्ग,
और आधार पर बने वर्ग का योग,
कर्ण पर बने वर्ग के बराबर के बराबर होता है,
पर मैंने कहा था, एक गिलास चाय दो भाई !
सडे हुए पानी पर,
तैरता हुआ मच्छर,
चला आया कान तक,
गरीब इंसान और मच्छर की आवाज़,
एक सी लगती है,
तभी कान में पड़ते ही,
दोनों को मरने का मन करता है,
मरे हुए मच्छर के,
जिन्दा लहू ने, मुझसे बताया !
कि वो मच्छर का लहू नहीं है,
वो छोटू की माँ का खून है,
जिसे मच्छर ने तब चूसा था,
जब वो दबी हुई थी,
एक पहाड़ के नीचे,
और पहाड़ मदमस्त खेल रहा है,
उसके ऊपर......
इस खेल के लिए तय हुए थे 150 रु०
मिले थे 100 रु०,
50 रु० के बदले,
मिली थी डांट,
खेलने के बाद
पहाड़ अक्सर डांट दिया करता है,
छोटू की माँ को !
मन किया था चूम लूं उसके खून को,
या भर लूं मांग,
हो जाऊं सुहागन,
पर मैंने पोछ दिया उसे बेंच पर,
तब तक सूखने के लिए,
जब तक छोटू उसे साफ न करे !
एक मखमली गंध,
अपना पथरीला लिबास पहने,
बेख़ौफ़ नाक में गुस गयी थी,
पकड़ कर गिरेबान,
निकला उसे बीच नाक से,
सहमी हुई आवाज़ में उसने कहा था !
भाग आई हूँ, उस कूड़े के ढेर से,
जिसके पार एक मासूम बकरी को,
काट रहे थे कसाई बारी-बारी से,
बिना कपड़ों के कूड़े में लिथड़ी हुई बकरी छोटू की बहन है,
आप चाहें तो इसे,
किसी आम आदमी की तरह,
कूड़े के जंगल में मंगल कह सकते हैं,
या खबरिया चैनल की तरह,
गैंग रेप भी कह सकते हैं,
पर मैंने तो इसे संविधान की प्रस्तावना कहा था!
एक गगन चुम्बी इमारत में,
ईंट जोड़ती हुई पतंग,
कट कर गिरी थी नीचे,
सभी लोगों की साथ,
दौड़ा मैं भी,
कि सब से पहले लूटूंगा मजा उस पतंग का,
किसी ने उस पतंग को, बेचारा मजदूर कहा था,
किसी ने बेचारा गरीब,
किसी ने कहा था, लापरवाह आदमी!
एक चाय वाले ने कहा था;- ये छोटू का बाप है,
पर मैंने कहा था :-
ये अशोक की लाट का सिंह है,
जो अभी- अभी गिर कर मर गया,
मेरे कहने का कोई मतलब नहीं है,
क्योंकि मैं संसद का रास्ता नहीं जनता,
आप चाहें छोटू को छोटू समझ सकते हैं,
मैं तो उसे हिन्दुस्तान समझता हूँ,
तुम्हारा --अनंत
5 टिप्पणियां:
जाना दर्द अनन्त यह, हो बढ़कर वीभत्स ।
माता बेंचे बेबसी, मानहीन है मस्त ।
मानहीन है मस्त, खून मच्छर सा पीता ।
परजीवी हो पस्त, अगर कुछ होय सुभीता ।
छिडको मच्छरमार, जरा गोइंठा सुलगाना ।
बाढ़े दुष्ट अपार, चाय तो पी के जाना ।।
बहुत ही मार्मिक अनंतजी.. तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं..। आज के युग में संवेदनशीलता ही तो मर गई है.. और गरीबों के लिए तो ज़िंदगी मौत से बदतर होती है.. हम भी उतने ही दोषी हैं जो चाहे खुद फायदा न उठाएं लेकिन ऐसी घटनाओं पर 'ओह'करने के सिवा कुछ नहीं करते।
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति।
बहुत मुश्किल होता है जा रहा है उस हिन्दुस्तान को ढूँढना ... आक्रोश टपक रहा है शब्दों से ...
sahi hai bhai......bole to kya jhannatedar rachna hai.I love u.
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