गुरुवार, जनवरी 13, 2011

वो

तुम अक्सर वो नहीं होते ,
जो तुम सोचते हो ,
कि तुम हो,
तुम अक्सर वो भी नहीं होते ,
जो लोग सोंचते हैं
कि तुम हो ,
तुम अक्सर अपने ''वो''
और लोगों के ''वो ''
से अलग एक और ''वो'' होते हो,
और इसी तीसरे ''वो'' को जानना ही
खुद को जानना है
तो हम क्यों नहीं जीते ,
उसी तीसरे ''वो'' के लिए,
जो न हमारा है ,
न लोगों का है ,
बल्कि वो बस ''वो'' है ,सच्चा ''वो'' ,
क्षितिज के अंतिम बिंदु पर बैठा ,
अकेला उदास सा धयानामग्न ,
प्रतीक्षारत ,राह ताकता, कि
''वो'' आएगा ,''वो'' कि तलाश में,
जीवन कि तलाश में ,
सच कि तलाश में ,
तुम्हारा--अनंत

1 टिप्पणी:

Pallavi saxena ने कहा…

और उस एक "वो" की तलाश में ही पूरी ज़िंदगी गुज़र जाती है।