तुमने नहीं महसूसा कभी
नदी, नदी में कैसे बहती है
ऊंचाई, ऊंचाई से कैसे गिरती है
बारिश खुद की बूंदों से कैसे भीग जाती है
तन्हाई कितनी तनहा होती है
हँसी के खोखलेपन में
कहीं कोई फूट कर रोता है
खालीपन में भी एक खालीपन होता है
भाषा भी कहना चाहती है कुछ
पर उसके पास भाषा ही नहीं है
तुम्हारे क़दमों के निशान भी चलना चाहते हैं, तुम्हारे साथ
और सांस भी सांस लेना चाहती है
तुमने नहीं महसूसा कभी
तुमने नहीं महसूसा कभी
कद्दूकस पर घिसी जा रही सब्जियों का दर्द
तुमने नहीं महसूसा कभी
क़त्ल करने से पहले ख़ज़र का रोना
तुमने नहीं महसूसा कभी
होने और नहीं होने के बीच तड़प कर मरते हैं
दुनिया के अधिकांश लोग
अच्छा किया जो तुमने नहीं महसूसा कभी
जो महसूसा होता ये सब
कविता की सलीब पीठ पर ढो रहे होते, तुम !
दो शब्दों के बीच बैठे कहीं रो रहे होते, तुम !!
तुम्हारा-अनंत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें