काजल आज यूनिवर्सिटी छोड़ रही थी। आज इलाहाबाद में उसका आखरी दिन था। इसलिए वो तेज़ क़दमों
ने यूनियन हॉल की तरफ बढ़ रही थी। उसकी आँखों
में एक तलाश थी। जिसका नाम अचल था। अचल पिछले
पंद्रह सालों से यूनिवर्सिटी में ही था। पहले BA फिर डबल MA फिर LLB और अब Ph.D चल
रही थी। बीच में दो-तीन साल आरती के चक्कर में जेल में भी था।
यूनियन
हॉल में अचल सफ़ेद कुर्ता, लाल साफा और नीली जींस पहने हुए मिल गया। काजल ने अचल का
हाँथ थामा और उसे यूनियन हॉल के बहार भाभी की चाय की दुकान तक घसीटते हुए ले आयी। अचल ने आश्चर्य से पूछा, क्या हुआ काजल ? कोई बात
है क्या ? काजल ने कहा, "हाँ है, और जो आज तुमसे नहीं कह पायी तो ज़िन्दगी भर खुद
को माफ़ नहीं कर पाउंगीं। कल मैं इलाहाबाद छोड़ कर जा रही हूँ अचल !!" अचल कुछ बोलता
इससे पहले एक गुजरते हुए साथी ने "कॉमरेड लाल सलाम" कर दिया। अचल, काजल को
"थोड़ा रुको, मैं आता हूँ" कहते हुए
आगे बढ़ गया। काजल कुछ देर खड़ी रही और फिर अचल के पास जा कर कहा, "शाम पांच बजे
सरस्वती घाट पर मिलो, नहीं मिले तो फिर कभी नहीं मिल सकोगे"। अचल, ''अरे रुको
बात करते हैं......" काजल मुड़ी और तेज़ क़दमों से हॉस्टल की ओर चल पड़ी। प्रॉक्टर
ऑफिस पर छात्र प्रदर्शन कर रहे थे, और वहां बाइक से पहुंचा अचल, एक साधारण लड़के से
“कॉमरेड अचल” में बदल गया। काजल ने अचल को “कॉमरेड अचल” बनते देखा और गर्ल्स हॉस्टल
चली गयी।
पांच
बजने से आधे
घंटे पहले ही
काजल सरस्वती घाट
पहुँच गयी। सूरज अभी
तप रहा था।
अभी ठीक से
शाम नहीं हुई
थी। इसलिए काजल
पेड़ के नीचे
बैठ गयी। एक
घंटे काजल ने
इंतज़ार किया और
साढ़े पांच बजे
जब गंगा आरती
की तैयारी होने
लगी तो काजल
चलने का मन
बनाने लगी। तभी
उसने देखा अचल
चला आ रहा
है। उसकी चाल ऐसी
थी कि कोई
जी भर देख
ले तो प्यार
कर बैठे। काजल सीढ़ियों
से उतर कर
आखरी सीढ़ी पर
गंगा में पैर
डाल कर बैठ
गयी। अचल भी काजल
के बगल में
जा कर बैठ
गया। काजल और
अचल के बीच
फैले सन्नाटे को
तोड़ते हुए अचल
ने कहा, "काजल,
वो पुल देख
रही हो। लोहे
का, नट-बोल्ट
से कसा हुआ"
काजल-
हाँ देख रही
हूँ।
अचल-
उसे देख कर
क्या ख्याल आता
है?
काजल-
कोई ख्याल नहीं
आता, असल
में, कभी ऐसे
सोचा नहीं।
अचल-
आज के बाद
जब तुम पुल
देखोगी तो तुम्हे
मेरा ख्याल आएगा।
काजल
को न जाने
क्या हुआ कि
उसकी आँखों में
आसूं आ गए।
उसने अचल का
हाँथ, हांथों में थाम
लिया। '' अचल
मैं तुमसे प्यार
करती हूँ अचल,
मैं तुम्हें
ये बताना चाहती
थी" काजल ने भरी-भरी आवाज़
में कहा।
अचल-
मैं जानता हूँ
काजल !
काजल-
तुमसे मिलने
के बाद मुझे
पहली बार लगा
कि मैं सिर्फ
एक लड़की नहीं
हूँ। एक
इंसान भी हूँ।
नहीं तो जब
से दुपट्टा लेने
लगी, मुझे एहसास
कराया गया कि
लड़की होना एक
चौकीदार होना है।
जिसे अपने जिस्म
में छुपी हुई
एक अदृश्य तिजोरी
की रखवाली करनी
है।
अचल
को काजल की
बात पर हंसी
आ गयी और
काजल शरमा गयी।
अचल
ने कहा, " दुष्यंत
कुमार को
जानती हो? लाजवाब
शायर था। इंक़लाब
लिखता था। इश्क़ से
उपजा इंक़लाब। वो यहां
कीडगंज में किराए
का कमरा ले
कर रहता था।
वहीँ किसी लड़की
से इश्क़ कर
बैठा। फिर लड़की
की शादी हो
गयी। दुष्यंत से
नहीं। बनारस के
किसी अमीर आदमी
से। वो रेल
में बैठ कर
बनारस चली गयी और
दुष्यंत पुल की
तरह थरथराते खड़े
रहे" कुछ देर
खामोश रहने के
बाद अचल ने
कहा, "ये पूल
टूटे हुए आशिकों
का थरथराता हुआ
देह है, दुष्यंत,
उस दिन के
बाद अक्सर शाम
को इसी पुल
के नीचे आ
जाते थे और
भरे हुए गले
से गया करते
थे।
"तू किसी
रेल सी गुजरती
है / मैं किसी
पुल सा थरथराता
हूँ"
काजल
ने अचल की
बात काटते हुए
कहा, "पर तुमने
तो कहा था
कि मैं पुल
देखूंगी तो तुम्हारी
याद आएगी। तुम दुष्यंत
कुमार की कहानी
सुना रहे हो"
अचल
ने हँसते हुए
कहा, "इस दुनिया
में हर टूटे
हुए आशिक की
कहानी एक जैसी
ही तो है।
दुष्यंत को याद
करना, मुझे याद
करना है और मुझे
याद करना इस
थरथराते हुए पुल
को याद करना
है"
काजल
कुछ देर चुप
रही फिर उसने
धीरे से कहा,
"अचल तुम मुझसे
प्यार करते हो
कि नहीं" ?
अचल
ने हल्की मायूस
आवाज़ में कहा,
"काजल मैं थरथराता
हुआ नहीं, टूटा
हुआ पुल हूँ। तुम्हे
उस पार नहीं
पहुंचा सकूंगा"
काजल
ने हल्की खीज
के साथ कहा,
"क्या हुआ अचल,
मुझे साफ़ साफ़
बताओ !!"
अचल
ने एक गहरी
सांस बाहर फेंकते
हुए कहा, "पुल
के उस पार
दूर जो सबसे
बड़ा मकान देख रही
हो, वो घर
आरती का था"
अचल ने जैसे
ही आरती का
नाम लिया। गंगा
जी की आरती
शुरू हो गयी,
पर काजल को
अचल की आवाज़
साफ़ सुनाई दे
रही थी। ये
कहानी अगर फिल्म
होती तो गंगा-आरती की
आवाज़ गज़ब का
साउंड इफेक्ट पैदा
करती, और आपकी
आँखों में आंसू
भी आ सकते
थे।
अचल:-आरती को
मैंने विद्रोह करना
सिखाया, किसी को
विद्रोही बनाना उसके भीतर
प्रेम के बीज
को रोपना है।
आरती विद्रोही हो
रही थी इसलिए
उसने प्रेम करना
भी शुरू कर
दिया। उसने एक
दिन यहीं, इन्हीं
सीढ़ियों पर बैठे
हुए मुझसे कहा,
“अचल मैं तुमसे
प्रेम करती हूँ
" जब उसके मुंह से
प्रेम शब्द निकला
तो मुझे उसका
वो बड़ा घर
दिखा, फिर उसके
पिता और भाइयों
का रसूख फिर
अपना फूस का
छप्पर, अपने विक्षिप्त
पिता और बूढी
माँ चेहरा
मेरी आँखों के
सामने नाचने लगा।
मेरे कानों में
उनके सपने गूंजने
लगे। मैंने कहा,
आरती मैं तुम्हारे
काबिल नहीं हूँ,
आरती ने झुंझलाहट
में पूछा, क्यों
? क्योंकि तुम गरीब
हो? मैं चुप
था, और आरती
ये बताती हुई
चली गयी कि
उसके घरवाले
उसकी शादी करना
चाहते हैं, पर
वो ये नहीं
होने देगी। आरती
के जाने के
बाद मैं अपने
भीतर के कायर
से रात भर
लड़ता रहा। रात
में करीब ढाई
बजे आरती का
फोन आया। आरती
रो रही थी।
उसने रोते हुए
कहा, "अचल चलो
भाग चलते हैं"
मैंने तुरंत जवाब
दिया, "आरती मुझे
भागना नहीं आता"
आरती ने फोन
रख दिया। फोन
रखते हुए वो
ऐसे रोई जैसे
कोई बड़ी इमारत
गिरी हो। मुझे
लगा उसका बड़ा
घर उसके ऊपर
गिर पड़ा हो।
अचल
अब खामोश हो
गया था, काजल
ने अचल के
कंधे पर हाँथ
रख कर पूछा,
"फिर क्या हुआ,
अचल ?
अचल:- अगली सुबह जब
यूनिवर्सिटी पहुंचा तो पता
चला आरती ने
आत्महत्या कर ली
है। वो भागना
चाहती थी। मैंने
मना किया तो
अकेले ही भाग
गयी। दोस्तों ने
बताया उसने मेरे
लिए एक खत
लिख छोड़ा है।
दोस्तों ने सलाह
दी मुझे भाग
जाना चाहिए। मैंने
तुरंत कहा, "मुझे
भागना नहीं आता"। अगले एक
घंटे मैं यहाँ-वहाँ पागलों
की तरह टहलने
के बाद इसी
पुल के नीचे
शमशान में खड़ा
था। आरती धुएं
में बदल रही
थी। उसी समय
एक रेलगाड़ी पुल
से गुजरी और आरती की चिता
से उठता हुआ
धुआँ पुल से
टकराया और मुझे
महसूस हुआ कि
पुल टूट गया
है। रेल गंगा
में गिर गयी
है और अब
कोई रेल इस
पुल से
फिर कभी नहीं
गुजरेगी। मैं ये सब महसूस
कर रहा था
कि एक हाँथ
पीछे से मेरे
गिरेबान पर पड़ा
और आवाज़ हुई,
"यही है वो
लौंडा...यही है
वो लौंडा..." मुझे
लोग पीट रहे
थे और मुझे
दर्द नहीं हो
रहा था। पुलिस
ने मुझे गिरफ्तार
किया और तीन
साल तक मैं
जेल में रहा।
इस बीच माँ
मर गयी और
पिता कहीं खो
गए। मुझे अब
भी भागना नहीं
आया था। मैं
यूनिवर्सिटी आया और
जो विद्रोह मैं
तब नहीं जी
सका था। उसे
जीने लगा। प्रेम
को जीना विद्रोह
को जीना है।
इसलिए मैं सारा
जीवन विद्रोह करता
रहूँगा। सारा जीवन
प्रेम करता रहूँगा।
रात
के आठ बज
रहे थे। अचल
ने काजल को
बाइक पर बिठाया
और मनकामेश्वर, बैहराना,
बालसन, आनंद भवन
होते हुए गर्ल
हॉस्टल पर छोड़
दिया। रास्ते भर
दो पक्तिं गुनगुनाता
रहा......."तुम अज़ब
धुएँ सा सुलगती
हो/ मैं किसी
पुल सा टूट
जाता हूँ" काजल,
अचल का टूटना
महसूस करती रही
और अचल, काजल
का सुलगना। अचल
ने काजल को
गर्ल्स हॉस्टल छोड़ा और
आनंद भवन के
सामने ज़र्ज़र ईमारत
में बने पार्टी
दफ्तर में चला
गया। उस रात
वो ऐसे रोया
जैसे पहले कभी
नहीं रोया था।
अचल विद्रोह के
हर मोर्चे पर
लड़ा और छत्तीसगढ़
के किसी मोर्चे
पर अनुशासन की
किसी गोली का
शिकार हो गया।
ये
बात काजल को
कभी नहीं पता
चली जैसे अचल
को कभी नहीं
पता चला कि
काजल ने अपने
बेटे का नाम
अचल रखा है
और बेटी का
नाम आँचल। काजल
के बेटे अचल
को दुष्यत कुमार
की ग़ज़लें बहुत
पसंद है और
वो "तू किसी
रेल सी गुजरती
है/ मैं किसी
पुल सा थरथराता
हूँ" कि जगह काजल के मुंह से
सुनी हुई लाइनें "तुम
अज़ब धुएँ सा
सुलगती हो/ मैं
किसी पुल सा
टूट जाता हूँ"
गाता है।
तुम्हारा-अनंत