शनिवार, जून 01, 2019

आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों !!

दिमाग़ में कई गालियाँ थीं। और दिल में एक बरजोर नदी। दिमाग़ गलियों में उलझ जाता था। वो धुंध के पार जो है उसे देखने को कहता था। दिल मानता ही नहीं था। कहता था, "मंजिल तक जाए बिना रुक नहीं सकता, जो पहाड़ी, रोड़े, ईंट, पत्थर आएंगे, वो मेरे वेग का शिकार होंगे"।

एक रात जब दिल अंधे मोड़ से टकरा कर उससे रास्ता तराश रहा था। दिमाग़ ने दिल के कंधे पर हाँथ रख कर कहा कि तुम जिसे मंज़िल मानते हो वो किसी और रास्ते पर है। तुम जितनी दूर उसके पीछे चलोगे। वो उतनी ही आगे उस रास्ते पर निकल जाएगा। या फिर किसी और रास्ते पर।

दिल अब दिमाग़ से लिपट चुका था। आँसू आंखों से बाहर आ कर इस विस्फोट के साक्षी हो रहे थे। यही कोई रात के तीन बजे होंगे। दिमाग़ ख़ामोश था। उसने अपनी बात इतनी बार दोहराई थी कि उसे अब कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दिल बैठा कुछ गुनगुना रहा था। हाँथ में उसके स्वाद बदलने वाली सिगरेट थी और आंखों में सूनापन। दिल हार नहीं मानता। उस रात भी नहीं माना। लेकिन अब वो पहले सा बेसब्र नहीं था। दिमाग़ ने कहा चलो क्या यही कम है कि थोड़ा संभले तो तुम। दोनों खिलखिला के हँसे। सूरज आसमान पर उगा और रात भर इंतज़ार करती नींद ने शिक़ायत की, "आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों"

अनुराग अनंत

!! मैं कविता की आग में जल मरूंगा !!

सुनों !
मुझे जलने की धुन सवार है
जैसे सवार थी उस बौद्ध भिछुक पर
जो चाइना मुर्दाबाद करते हुए जल गया
या फिर उस स्टूडेंट की तरह
जो तेलंगाना जिन्दाबाद करते हुए मर गया

मेरे हांथो में पत्थर है
और सीने में गोली
मुझे मारने में तुम्हे मुश्किल से दो मिनट लगे
पर खत्म करने में सदियाँ कम पड़ेंगी

मैं आवाजों के घेरे में घिरे हुए आदमियों की आवाजों से घिरा हूँ
मेरी चिंता में काली तस्वीरें है
और खून में लिथड़ा एक अँधेरा रो रहा है

तुम्हारी चिंता में सुनहरे पंख और मरमरी बदन हैं
सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना और शाम का भोजन है
फ़िल्में, गाने, चुटकुले, प्यार की अफवाहें और अश्लील हंसी तुम्हारे चारो तरफ पसरी है
और मेरे चारो तरफ है नारे और खामोश घुटन, सन्नाटा और शोर

एक आग है, एक नंगी आग है मेरे चारो तरफ
जिसमे मैं जल मरूंगा
सुनो!
मैं जल मरूंगा
जैसे जले हैं मुझ जैसे ही कई

मेरे जलने की दुपहर तुम कहना
गर्मी कितनी ज्यादा है, अबकी सर्दी बहुत ज्यादा पड़ेगी
थोड़ी सी जम्हाई आएगी तुन्हें
और तुम कहोगे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता
भ्रष्टाचार इस देश को डूबा देगा

तुम चिंता करना कि
सचिन सौ सेंचुरी मार पायेगा कि नहीं ?
सलमान शादी करेगा कि नहीं ?
तुम भगवान से मनाना
शाहरुख खान कभी बूढा न हो
अमिताभ बच्चन कभी न मरे
राखी सावंत पर तुम चर्चा करना
और निष्कर्ष निकलना कि वो चरित्रहीन है
तुम बेवजह हंसना और रोना
फिर भूल जाना कि आज तुमने क्या कहा था
आज क्या हुआ था या किया था
ताकि तुम कल फिर वही बातें कह सको
तुम कल फिर वही काम कर सको

और मुझे कल फिर जलना पड़े

सुनो!
मुझे जलने की धुन सवार है
मैं कविता की आग में जल मरूंगा

अनुराग अनंत

काठ दिल या पत्थर दिल लड़की !!

उस लड़की के हर मैसेज में अपना ख़्याल रखो जैसा संदेश रहता था। वो लड़का जिसका दिल मोम का बना था। कभी नहीं बता पाता था कि उसका ख़्याल तो उसी लड़की के पास रहता है।

लड़की का दिल कभी काठ तो कभी पत्थर होता रहता है। बहुत पहले वो नदी और झरने की तरह भी था। था भी कि सिर्फ़ दिखवा ही था कुछ ठीक ठीक नहीं कह सकता वो लड़का। लेखक दूर खड़ा है और सबकुछ ऐसे देख रहा है जैसे किसी कसाई की दुकान के सामने खड़ा कोई तमाशबीन मुर्गे या बकरे को कटते हुए देखता है। एक और लड़का है जिसके दिमाग़ में उसकी प्रेमिका की सगाई पिछले तीन महीनों से हो रही है। कल उसकी सगाई है और वो आज आईएएस का सिलेबस डाउनलोड कर रहा है। उलझन कोसी की बाढ़ की तरह लहरा रही है और कमरा घुटन से भर चुका है। लड़का भाप की तरह सतह से उठता है और अगले ही दम वो आईएएस की कोचिंग में मैनेजर के सामने बैठा हुआ पाया जाता है। 69 हज़ार की बात हुई लड़के ने 2 हज़ार जेब से निकाल का जमा कर दिए। बाकी देता रहेगा कह कर वापस कमरे की तरफ बेहिस कदमों से लौट आया। मोमदिल लड़के ने दही और केले को ब्लेंडर में डाल कर ब्लेंड किया और पपीता खाया। खाने की ज़रूरत उसे इन दिनों नहीं महसूस होती।

अब दोनों लड़के आमने सामने हैं। आईएएस की कोचिंग से लौटा लड़का पूछता है, "मैं क्या करूँ" मोमदिल लड़का कहता है उसे भूल जाओ"। जब वो ये कह रहा होता है तो उसे काठ दिल या पत्थर दिल लड़की की याद आती है। फोन उठाता है और उसका नंबर देख कर डायल नहीं करता और इसबीच दूसरा लड़का अपनी प्रेमिका के पिता को फोन मिला देता है। वो उसके पिता से किसी मेमने की आवाज़ में बात करता है और उसके पिता किसी शेर की तरह जवाब देते हैं। अब आईएएस बनने का सपना देखने वाला लड़का उठता है और सगाई वाली जगह जा कर बच्चों की तरह रोते हुए ज़मीन पर लोटने लगता है। मोमदिल लड़का अपने दिल को जलाता है और मोमबत्ती की मद्धम रोशनी से कमरा भर जाता है। लेखक ठहाका मार कर हंसना चाहता है पर जेब से सिगरेट निकाल कर जला लेता है। एक पल को दुनिया ठहर जाती है और अगले ही पल लेखक की कलम की नोंक पर नाचने लगती है।

अनुराग अनंत

मृत्यू सी शांति !!

आपको जिस चीज़ की प्रतीक्षा हो जब वो मिल जाती है तो मृत्यू सी शांति मिलती है।

ग़ज़ब बात करते हो यार, शिद्दत से चाही चीज़ का मिलना और मृत्यू ? कैसी अज़ीब बात कर रहे हो। एकदम बेमेल मिलन है। मन का स्वाद कसैला कर देने वाली बात।

दो घड़ी ठहर कर उसने कहा- जीवन भी तो बेमेल चीज़ों का ही मिलन है। हर पल मन का स्वाद कसैला होता रहता है। एक बार हँसने से पहले सौ आँसू पीने पड़ते हैं।

-यू आर सो निगेटिव,
-नो डियर आई एम सो रियल !!
-यू मेक मी डिप्रेस ऑल दी टाइम
-नो, आई टेल माई ट्रूथ टू यू, व्हिच यू डोंट अससेप्ट !!
-आई एम गोइंग।
-आई नेवर होल्ड यू।

वो चला गया। रात गहरी हो रही थी। घड़ी अपनी धुन में चल रही थी और वो अपनी धुन में सुलग रहा था। गंगा के कछार से राम राम की धुन गूँज रही थी। वो एक साधू था जो एक साल से सोया नहीं था। ये एक प्रेमी था जिसे नींद नहीं आती थी। वो उस लड़की का नाम ऐसे पुकारता था कि कोई सुन ना सके। उसके भीतर के निर्वात में अब बस उस लड़की का नाम ही था। बिस्तर पर निढाल बेबसी के जैसे पड़ा हुआ वो अपने दोस्त की बात याद कर रहा था। एक खाईं सी आत्मा में ख़ुद रही थी। एक गहरी अंधेरी गुफ़ा। जिसमें वो खो रहा था। आप इसे नींद और सपना कहना चाहें तो कह सकते हैं। पर अभी भाषा में इनकी परिभाषा नहीं थी। इनके लिए शब्द रचे जाने थे।

उसके दिमाग़ में एक चित्र उभरता है। हिरण का शावक भाग रहा है और शेर उसके पीछे पड़ा हुआ है। उसकी शिराओं में जैसे ही ख़ून की रफ़्तार तेज़ होती है। शावक की जगह वो ख़ुद को पाता है और शेर उस लड़की का बाप बन चुका है। उसके हांथों में रिवॉल्वर है। अब उसकी त्वचा पर पसीने की बूँदें फूट आईं हैं। और कदमों में पहिये उतर आएं हैं। चारों तरफ एक घना जंगल है और रास्ते फूटते ओझल होते रहते हैं। वो आदमी चाहे तो गोली मार सकता है पर वो बंदूक की नाल को माथे के बीचोंबीच रख कर मारना चाहता है। वो चाहता है कि मौत उसे छुए, उसकी साँसों में मृत्यू की गर्मी घोलना चाहता है वो आदमी।

पैर थकने लगे हैं। अब साँस भी टूट रही है। जंगल एक पार्क में बदल गया है। लड़का हाँफते हुए बैठ गया है। सुस्ताते हुए वो पीछे देखता है। अब लड़की के बाप की जगह लड़की है। उसके चेहरे पर ज़न्नत है और लड़के के चेहरे पर ग़ुलाबी रंग। लड़की एकदम पास आती है। लड़के की आँखों में आँख डाल कर देखने लगती है। लड़का इस दुनिया का अब नहीं है। वो भाषाएं भूल चुका है। उसकी चेतना निर्वात में झूलती कोई वस्तु है। लड़की आँखें बंद करती है और लड़के के माथे पर बीचोंबीच चूम लेती है। लड़के का स्वप्न टूटता है। उसमें मृत्यू सी शांति पसर चुकी है। वो अपने उसी दोस्त को फ़ोन मिलता है। फ़ोन नहीं उठता। वो फ़ोन काट कर बुदबुदाता है।

प्रेम का एक चुम्बन आपकी आत्मा तक शांति भर सकता है। मृत्यू सी शांति। प्रेम आपको ऐसे मारता है कि आप अमर हो जाते हैं।

अलविदा !!

तुम: तुम मुझे पाना चाहते हो ?
मैं: क्या तुम जाना चाहते हो ?
तुम: अलविदा !!
मैं: जब हम मिले ही नहीं तो विदा कैसी ?

तुम ख़ुद को वस्तु और देह समझती थी
मेरे लिए तो तुम एक स्त्री थी
चेतना और मन की नदी
जिसके किनारे मैं गा सकता था
जिसमें मैं अपने दुख प्रवाहित कर सकता था
दुनिया से हार कर या युद्ध जीत कर
या भीतर के राक्षस को मार कर या ख़ुद को तुम पर वार कर
मैं राम की तरह तुममें समा सकता था
पर तुम सरयू नहीं बनी
तुम वस्तु बनी

और वस्तुएं तो बाज़ार में भी मिल सकती हैं
पर नहीं मिलती कोई नदी किसी बाज़ार में
नहीं बिकती चेतना किसी हाट में
नहीं है किसी शो रूम में किसी स्त्री का मन

एक बात सुनों जाना सबसे ख़तरनाक क्रिया है
कवि केदार ने कहा है
पर जान का जाना, प्रेम का जाना, किसी स्त्री का जीवन से जाना
वस्तुएं आने जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता
ना कवि केदार को
और ना मुझे

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-13

आजकल दिन रात तक पहुंचने का रास्ता मात्र है
रात ?
मेरी रातें ना जाने कब से परिभाषा को तरस रहीं हैं

तुम जो कलतक एक लड़की थी
आज अंतरिक्ष हो चुकी हो
तुम्हें अवाज़ देता हूँ
तो मेरी अवाज़ कहीं खो जाती है

एक दिन तुमनें प्रेम से जो एक अँजुरी धूप दी थी
इस अंधेरे से उसी ने मुझे बचा रखा है
अब सुबह उठता हूँ तो डर लगता है
कि कहीं बिच्छुओं पर पैर ना पड़ जाए
हालांकि जाना कहीं नहीं है
पेड़ों को पैरों का कोई काम नहीं होता

कुंद होते इस समय में जब तुम नहीं हो
और याद जैसी कोई चीज़ चींटियों में बदल चुकी है
प्रेम जिसे मैंने कबूतर समझा था
रीढ़ से शुरु करके ज़िगर तक सबकुछ चबा जाना चाहता है

मैंने तुम्हारे दिए धूप के एक नन्हें टुकड़े में
चुपके चुपके धार लगानी शुरू कर दी है
जिसदिन इस धूप के टुकड़े की नोंक पर उगेगा चाँद
उसी दिन समय निकाल कर मैं ये कहानी पूरी कर दूंगा

कविता की आख़री पंक्ति लिखी जाएगी
और सारी अटकी हुई बातें हमेशा के लिए
शांत हो जाएंगी

इसी तरह विदा होता है कोई जिद्दी आदमी
इसी तरह ख़तम होती है कोई कहानी

अनुराग अनंत

चाँद के दाग गिन लेना !!

मेरी सारी प्रेमिकाएँ सिगरेट की तरह रहीं
भीतर से सुलगती हुईं
और बाहर से राख होती हुईं

मैंने लगाया उन्हें होठों से
और सांस के साथ उतार लिया ज़िगर में

आहिस्ते आहिस्ते ख़त्म होतीं रहीं वो
रफ़्ता रफ़्ता घायल होता रहा मैं
नींद आई तो सोने नहीं दिया मुझको
रोना चाहा तो रोने नहीं दिया मुझको

जब तक रहीं लबों पर टिकीं रहीं
जब नहीं रहीं तो नहीं ही रहीं
पर सिगरेट के ख़त्म होने से कहानी ख़त्म नहीं होती
हर सिगरेट ज़िगर में दाग छोड़ जाती है

और इसलिए मुझे जब तुम समझना चाहो
चाँद के दाग गिन लेना

वो जितनी थीं सब की सब कहतीं थीं
मेरा दिल चाँद जैसा है

जितने दाग हैं चाँद पर उतनी ही सिगरेट पी है मैंने
उतनी ही प्रेमिकाएँ थीं मेरी
उतनी ही मौत मरा हूँ मैं
उतनी ही रात जगा हूँ मैं

अनुराग अनंत

तुम और तुम जैसी स्त्रियां !!

तुम मुक्तिबोध की कविता की तरह थी
समझने में कठीन
लेकिन हर मोड़ पर मोह लेने वाली

तुम मुझे बात बात पर चाक पर चढ़ा देती थी
मेरी मिट्टी में अलग अलग मूर्तियाँ उभरने लगतीं थी
मैं कील की तरह अपनी छाती में धँसता था
और ख़ुद के खोल को ख़ुद में टिका का टांग देता था
एक बात बताऊँ बहुत दर्द होता है
इस क्रिया में

ये ऐसे था कि मेरे कानों में जलमृदंग बज रहे हों
और मैं हंसते हुए अपनी ख़ाल उतार रहा हूँ
और कील तो मैं था ही

इस दोषपूर्ण जगत में मैंने दोष देखना नहीं सीखा था
इसलिए कमोबेश अंधा ही था मैं
इसबात को मैं जानता था कि देखे बिना भी चीजें जानी जा सकती हैं
अवाज़ को टटोल कर, आत्मा को छू कर और किसी के भीतर उतर कर

तुम जानती हो तुम्हारे भीतर बहुत नम मिट्टी है
शायद बहुत रोई हो तुम भीतर भीतर
मैं गंगा के किनारे का हूँ
इसलिए नम माटी से हृदय लगा बैठता हूँ
मेरी स्मृतियों के पाँव
और मन की नाव उसी तट पर टिके हैं
जहां बैठ कर तुम रोई हो

हर कविता में कविता हो ये जरूरी नहीं
ठीक वैसे जैसे हर प्रेम में प्रेम
हर हाँ में हाँ
और हर ना में ना

जीवन श्याम श्वेत कभी नहीं रहा
तो कैसे ऐसे परिभाषा के खांचें जीवन को समेट पाते
मैं जो ये कह रहा हूँ
ठीक इसीसमय
भीतर एक स्त्री पाथ रही है उपले
और मेरे माथे पर पड़ रहे हैं निशान
जब अकेलेपन का अकाल पड़ता है
मैं अपने माथे पर महसूसता हूँ उसी स्त्री की उंगलियाँ
बदलने लगता हूँ उपले में
झोंक देता हूँ ख़ुद को आग में
आग भूख मिटाती है और दुःख भी
आग विदाई का रथ भी है
और दीपक की आभा भी
और विद्वान कहते हैं कि आग मुक्तिबोध की कविता भी है
तो तुम भी तो आग हुई

एक दिन आएगा जब मैं तुममें समाऊंगा और विदा हो जाऊँगा
जैसे कोई उपला राख होता है अग्नि में
तुमनें और तुम जैसी स्त्रियों ने सृजा है मुझे
तुम्हें और तुम जैसी स्त्रियों को ही अधिकार है
कि मुझे भस्म करें, मिटाएं, राख कर दें

अनुराग अनंत

इच्छा !!

मेरी लापरवाहियों ने गढ़ा मुझे
सलीके की सलीब को ढोने से इनकार किया मैंने
रातों को जागा
और पूरे पूरे दिन नींद और उदासी में काट दिए

ये कोई अच्छी बात नहीं है
ना कोई आदर्श और ना कोई अनुकरण योग्य कृत्य

पर ऐसे ही रहे हैं ख़ुद में खोए ख़ुदरंग लोग
ऐसे ही रहे हैं अपने शिल्प का साथ देते लोग

जीतने के लिए जो ज़रूरी था
सदैव गैरज़रूरी जान पड़ा
अनुशाशन नदी को तालाब बनाता है
ऐसा लगता रहा मुझे
और मैं नदी बनने के लिए हर खांचे को तोड़ कर रोता-मुस्काता रहा

कोई मुझसे कुछ ना सीखे
मैं ख़ुद से ख़ुद होना सीख रहा हूँ
रोने की कला सीख रहा हूँ
कि मैं रोऊँ तो दुनिया उसे कविता कहे
गीत लगे उन्हें मेरी आह
मैं अपनी बीती कहूँ लोगों को कहानी लगे
मैं जब अपनी प्रेमिका को याद करूँ
लोगों को उनके बिछड़े याद आएँ

खोते खोते पाते है हम
यही गूँजता है रात के चौथे पहर
और मैं अपनी सारी प्रिय चीजें हथेलियों पर सजा लेता हूँ

कविता को कविता ही नहीं देखा मैंने
ये एक खूफिया रास्ता रहा है मेरे लिए
जिससे होकर मैं कभी भी फ़रार हो सकता हूँ
सारे पहरों को धता बता सकता हूँ
बेड़ियां निर्थक कर सकता हूँ
जेल को खेल सिद्ध कर सकता हूँ

इच्छा पाप रहीं हैं
और मैं पापी
इसलिए इच्छाओं के लिए ही जीया
सब इच्छाओं में सबसे ऊपर जो इच्छा है
वो बस ये है कि
मैं तुम्हारी दिल की दीवार पर कोयले से लिखी गई कविता सा उभरूँ
और कोयला मेरी हड्डियों के जलने से जन्में

अनुराग अनंत

ऐसे मरता है रिश्ता !!

ज्यादा नहीं बस इतना जानों कि
सबसे पहले मरती हैं बातें
फिर पत्थर होती जाती हैं रातें
फिर ठंडा पड़ता है दिल
फिर मरता है लगाव तिलतिल
फिर रुकने, आने, जाने का अर्थ खो जाता है
फिर बिसुरने लगते हैं हम कि क्या नाता है
फिर एक दिन अचानक हम देखते हैं
वो करोड़ों में एक हो गया
और पता ही नहीं चला कि एक रिश्ता जिसके लिए हम मुस्कुरा के मर सकते थे
बेमौत बेवक्त ना जाने कैसे मर गया

याद का क्या है वो आती है, नहीं आती है,
फिर कभी अचानक किसी मोड़ पर मिल जाती है
कोई किसी को भूल नहीं पाता
कोई किसी को याद भी नहीं रखता

ऐसे ही मारते हैं हम अपने हांथों रिश्तों को
और ताउम्र ढोते हैं यादों की किस्तों को
सस्ती तुकबंदियों से कविता नहीं बनती
जिंदगी बिना सस्ती तुकबंदियों के नहीं चलती

जिंदगी को कविता करने की ज़िद्द घातक होती है
ये बात हर उस कवि को मालूम है जिसने जिंदगी को कविता किया है
जो शिव बटालवी की तरह स्लो डेथ मरा है

ये को कुछ लिखा है
इसमें कविता तलाशना पत्थर के शहर में फूल खोजना है
ये वो बात है जिसे जानता मै भी हूं, तुम भी जानते हो और वह भी जनता है
जिसने एक नन्हें से मासूम रिश्ते की गर्दन पर अभी अभी कटारी रख दी है।

अनुराग अनंत

बुधवार, मई 01, 2019

मेरी उपस्तिथि..!!

मेरी उपस्तिथि ऐसी रही
कि अनुपस्थित ही रहा सदा
प्राथनाएं मुझसे निकल कर
मुझमें समातीं रहीं
और मौन ही रही मेरी सबसे सार्थक परिभाषा

भाषा में अव्यक्त रहा
और बोलकर कई कई बार ख़ुद को नष्ट किया
समझदारों की तरह जीने से बचने की जिद्द में
समझदारी ही हाँथ लगी हर बार

जीवन भर दुहराई जाती रही
एक ही कत्थई त्रासदी
और मैं एक ही बिन्दु पर
हर बार कील की तरह ठोंक दिया गया

जब जलेगी मेरी चिता तो
अलिखित प्रेम पत्र महकेंगे
धुएं की जगह तुम्हारी स्मृतियाँ उड़ेंगी आकाश में
वर्षा होगी और बदल गरज कर कहेंगे
तुमने मुझे सदैव ग़लत ही समझा
तुम मुझे कभी नहीं समझे !!

पीड़ा कुछ नहीं है
शिवाय सांस और धड़कन के

मैंने हर आख़री बात इसलिए कही
कि पहली बात दुहरा सकूं।

अनुराग अनंत

बुधवार, अप्रैल 17, 2019

तो समझो फिर 'झुक गया देश' !!

उधर जिधर हत्यारे हैं
गर्व में तने गर्वित मस्तक हैं
चंदन से सुशोभित भाल है
तन पर मरे हुए सिंहों की खाल है
उधर इंसान नहीं
इंसानों के ख़िलाफ़ साजिशें है
उधर अगर 'झुक गया देश'
तो समझो फिर 'झुक गया देश'

अनुराग अनंत

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं !!

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।

अपराधों की सूची में
सबसे जघन्य अपराध था
"चाहत" से किसी कविता को शुरू करना
ये बात मैं जानता था
फिर भी मैंने 'चाहत' से कविता शुरू की
कि मैं चाहता था कि
मुझसे पूछा जाए
जब गर्मियों की किसी शाम मरी मेरी माँ
और पिता घर पर नहीं थे
तो मैं कहाँ था

मुझसे पूछा जाए कि प्यार जब तिल तिल कर मर रहा था
और उसने हल्के से रोते हुए कहा
कि चलो भाग चलते हैं
उस वक़्त मैं कहाँ था ?

मुझसे पूछा जाए जब लिखना था कुछ बेहद जरूरी
और मैं नहीं लिख सका
उस वक़्त मैं कहाँ था

मुझसे पूछा जाए
जब उतर जाना चाहिए था दिल के बहुत गहरे
और मैं नहीं उतरा
उस समय मैं कहाँ था

जब मेरी कलाइयों में हथकड़ी और मुंह पर नारे होने थे
उस वक़्त मैं कहाँ था

मैं कहाँ था ?
तब जब मुझे बढ़ कर शहीद हो जाना चाहिए था
या जब हवन हो जाना था मुझे
मैं कहाँ था ?
तब जब हर इंतज़ार का मुकम्मल जवाब देना था मुझे

मैं चाहता था
मुझसे हज़ार सवाल पूछे जाएं
पर दुःख और दर्द इसी बात का है
कि मुझसे महज़ एक सवाल पूछा गया
"चौरासी में कहां थे ?"

इस समय जब बहुत कुछ हासिल हो चुका है
ऐसा अख़बार, टीवी चैनल
और देश का राजा बोलता है
तो मैं अपनी हथेली देखता हूँ
जहां मुहावरे अश्लील हँसी हँस रहें हैं
हमारे इस स्वर्णिम समय का हासिल
महज़ चंद मुहावरे हैं
"मार कर लोया कर देंगे"
"ऐसा गायब करेंगे कि नज़ीब हो जाओगे"
"रोहित वेमुला बना दिये जाओगे"

मैं अपनी हथेली देखता हूँ
और फिर अपने समय और अपनी भाषा के विस्तार को देखता हूँ
सिमटी हुई भाषा और सिकुड़ा हुआ आदमी कितना विराट लगता है

इतना विराट की ढंग से न सवाल पूछता है
और ना पूछने देना चाहता है

मुस्कुराइए कि हम इस समय में हैं।

अनुराग अनंत

एक ग़लती फिर से हो गयी है !!

एक ग़लती फिर से हो गयी है !!

मेरी एक कविता खो गयी है
एक गठरी जिसमें
एक टुकड़ा दुख
एक टुकड़ा दर्द
एक टुकड़ा याद
एक टुकड़ा बात
एक टुकड़ा दिन
एक टुकड़ा रात
बांध दिए थे मैंने

कई दिन अलसाए अलसाए बिताए
रोते हुए, समय के ख़िलाफ़ लड़ते हुए
समय नष्ट करते हुए
अपने भीतर की बिखरन बुहारते हुए
कीमती, बेशकीमती और ग़ैरकीमती समान जलाते हुए
जब बीता समय का एक टुकड़ा
तब कहीं एक अदद कविता निकली
भीतर की बंजर ज़मीन से

वही कविता खो गयी है
एक ग़लती फिर से हो गयी है।

अनुराग अनंत

मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है !!

तुम चाँद के वक्र पर जान दे सकते हो
और चाँद का वक्र मेरी जान ले सकता है
क्या जान देना और जान लेना
एक जैसी बात ही है क्या ?
नहीं! क़तई नहीं
ठीक वैसे, जैसे
समंदर का पानी नमकीन होता है
और आंसू खारा

मेरा सब कुछ लिखना बर्बाद है
और तुम सोच भी लो यदि तो कविता हो जाए

दरअसल सारा खेल तुम्हारी आँखों में है
तुम कालीदास की तरह बादलों को देखते हो
और बादल मेघदूत हो जाते हैं
और मैं किसानों की तरह बादल को देखता हूँ
और बादल मुंह बिचकाते हैं।

तुम समय निकाल कर फ़िल्म देखने चले जाते हो
और मैं समय के निकल जाने पर पछताता हूँ।
चाँद तुम्हारे छत पर चढ़ कर ईद हो जाता है
और चाँद मेरी छत पर चढ़ता है और कूद कर जान दे देता है

मुझमें और तुममें बस यही छोटा सा अंतर है।

अनुराग अनंत

इसके अलावा बाकी सब मस्त है !!

वो जब मुझमें उतरती है
मैं नदी की तरह बहता हूँ
वो नाव की तरह तिरती है

मैं नींव की तरह दबता हूँ
वो पुरानी इमारत की तरह गिरती है
डरना उसके लिए खाना खाने जितना जरूरी है
वो दिन में तीन बार नियम से डरती है
इस तरह आप अंदाज़ लगा सकते हैं
कि एक बार जीने के लिए वो कितने बार मरती है

और हां एक बात और....

जिनके लिए दुख का मतलब
ग्लिसरीन वाले आँसू हैं
उनकी फैक्ट्री में आजकल
समय के सांचे गढ़े जा रहे हैं
इसीलिए संवेदना के चित्र
सुनहले फ़ोटो फ्रेमों में मढ़े जा रहे हैं
लोग संवेदना के मरने पर दुखी हैं
और अपने अपने लिए ग्लिसरीन का इंतजाम करने में व्यस्त हैं

इसके अलावा बाकी सब मस्त है
चल यार फिर कभी बात करता हूँ

अनुराग अनंत

"ईश्वर" गिर कर मर गया...!!

उस रात का सपना ऐसा था जिसने दिन की हक़ीक़त बदल दी। अब मैं माँ को याद करता था तो उसके पल्लू में बंधे सिक्के याद आते थे। उसकी देर रात लगाई गई खाने की थाली, उसके गाल में पिता के थप्पड़ के निशान और उसकी चिता याद आती थी। मेरी माँ टुकड़ों में बंट गई थी। पिता साबूत पत्थर की तरह थे जिसपे जब तब मैं सर दे मारता था। तुम जो कभी झरने की तरह लगती थी अब रेत लगने लगी थी। मैं शीशे में खुद को देखता था तो एक तड़पती हुई मछली दिखती थी या अंधेरे में सिसकती हुई बच्ची। सब कुछ बदल गया था। आदमी सड़क पर चलते चलते भाप की तरह उड़ जाते थे और मशीनें राजाओं की तरह आदेश देतीं थीं। सारी समस्या का हल था मेरे पास था। जिसे लोग नींद की गोलियां कहते थे और मैं जिंदगी का दूसरा नाम। मेरे ज़हन में हमेशा बर्फ़ गिरती रहती थी। और एक तेज़ रफ़्तार गाड़ी गुजरती और एक बच्चा सड़क पार करने की फ़िराक़ में दब कर मर जाता था। इस तरह जितनी बार मैं सुकून से बैठता उतनी बार एक बच्चे की मौत हो जाती थी। उस रात सपने में मैंने देखा कि गली की सबसे बुजुर्ग बुढ़िया ने सारी जिंदगी की कमाई से जो घर बनाया था जिसका नाम उसने "नज़र" रखा था। उसकी छत से उसका पागल बेटा "ईश्वर" गिर कर मर गया। लोगों ने कहा "बुढ़िया की नज़र से ईश्वर गिर कर मर गया। मेरे साथ जो हुआ था उसका क्या नाम है, उसे क्या कहा जायेगा। ये लोगों को तय करना था। किसी दिन समय निकाल कर वो लोग ये भी तय कर देंगे शायद।


अनुराग अनंत 

डरो मत !!

'ड' से डरो मत

'र' से रास्ते हमेशा मौजूद होते हैं, बस उन्हें खोजना होता है।

'म' से मौत को सत्य कहने वाले लोग झूठे, भटके और असफल व्यक्ति हैं। मौत कुछ नहीं होती।

'त' से तभी जिया जा सकता है जब मृत्यू का भय ना हो, और जीवन का लोभ भी।

और इतनी बात का कुल जमा ये कि

डरो मत !!

क्योंकि विकल्पहीन व्यक्ति के पास डरने का विकल्प नहीं होता।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-12

मैंने अपनी नींद तुम्हारी आँखों के नाम कर दी
और तुम्हारी आँखों में दुहरी नींद तैरती रही
दोगुना नशा
दोगुनी मादकता
चंचलता कितनी गुनी थी, पता नहीं !
पर इतना मालूम है
तुम्हारी आंख वो मिथकीय तालाब है
जिसमें झाँकते ही डूबकर मर जाने का मन करता है

तुम्हारी आँखों में ना जाने कितने डूब कर मरे होंगे
तुम्हारी आँखों में ना जाने कितनों की नींद बहती है
तुम्हारी आंखें ना जाने क्या कहतीं हैं।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-11

तुम्हारी याद किसी भेड़िये की तरह
उलझन की झाड़ियों से कूद कर वार करती है ज़िगर पर
और मैं रिसते हुए लहू की लकीर बनाते हुए
रेंग कर नींद तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ
पीछे पीछे तुम्हारी याद मेरे पस्त होने के इंतज़ार में
लहू की लीक पर, ख़ून सूंघते हुए मुझतक पहुँचती है
और नींद तक पहुँचने से पहले ही मेरा शिकार कर लेती है

आंखों से भाप की तरह उठती रहती है कराह
और आंखों के नीचे स्याही सी जमा होती रहती है मेरी पीड़ा
देखने वाले देखते हैं और पूछते हैं
"कल फिर तुम सारी रात नहीं सोए ना ?"

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-10

मैंने सुना है लगातार जागने से आदमी पागल हो जाता है
सुना ये भी है कि पागल आदमी लगातार जगता रहता है
और बहुत याद करता हूँ तो ये भी याद आता है
कि उसने एक बार कहा था
जीने के लिए पागलपन ज़रूरी है
और पागलपन के लिए जागना

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-9

एक बेचैन पागल की टूटी चप्पल
एक अनाम कवि का मटमैला झोला
एक प्रेमी की अनकही बात
एक आवारा लड़की की अंगड़ाई
एक सुहागन की रख कर भूली हुई कोई चीज़
एक बूढ़े की कंठ से फूटती मौत की मनुहार
एक माँ की पनीली आंखें
और एक उजाड़ मंदिर की भग्न देवी प्रतिमा
मेरी रातों में काटें बिछाती फिरतीं हैं
मेरी नींदें इन्हीं से टकरा कर गिरतीं हैं

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-8

मेरी नियति जागते रहना है
मेरी किस्मत भागते रहना है
मेरी मेरुदंड पर उग आया है पहाड़
सोने के लिए लेटना चाहता हूँ तो लेट नहीं सकता
मेरी आँखों में छीपा रोता रहता है कोई
धड़कनें बनातीं रहतीं है खाइयाँ
बदहवास दौड़ कर आता है कोई
और सतह पर आख़री बुलबुले के साथ ही
वो भी खो जाता है कहीं
यही क्रिया दोहराई जाती है रात भर
अपने ही ज़िगर को खोदता हूँ
अपनी ही आत्मा में कूदता हूँ
मुंडेर पर ढेर होता रहता हूँ
सड़कों पर देर रात कुत्तों से बच कर टहलता हूँ
दूर चौराहे तक जाता हूँ
एक सिगरेट, एक चाय पी कर आता हूँ
मानों यही करने के लिए लिया हो जन्म
मानो ये ना किया तो मर जाऊंगा

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-7

नींद की नौ कविता

1.
तुम ख़्वाब की शक़्ल में
मेरी नींद की जासूसी करती हो।
इसलिए रात भर जाग कर मैं अपनी नींद
आंखों के नीचे की स्याही, चेहरों की झुर्रियों और अपनी खीज़ में छुपा देता हूँ।

2.
जागता हुआ आदमी
ट्रेडमील पर भगता हुआ आदमी होता है

3.
जब रात नहीं कटती
तो घटनाएं घटती हैं।
घटने को तो ये भी घटना घट सकती थी
मेरी कलाई की नस कट सकती थी।

4.
अधूरी बात की तरह गुज़री पूरी रात
बह भी गयी, रह भी गयी।

5.
रात भर नींद की अदालत में मुक़दमा चलता है
मैं सारी रात कठघरे में खड़ा रहता हूँ।
"मैं सोना चाहता हूँ"
रोते हुए नींद से कहता हूँ।

6.
तुम्हारा ख़याल नुमाया होता है
और नींद ग़ायब हो जाती है
"तुम्हारा ख़याल" नींद का दुश्मन है
"नींद" तुम्हारे ख़याल की मारी।

7.
ढाई कदम की रात थी
और ढाई अक्षर का तेरा नाम
कल सारी रात तेरा नाम लेने में कट गई।

8.
मेरी नींद घायल है
रेंग कर मुझ तक आती है
और तब तक सुबह हो जाती है।

9.
कल रात फिर सारी रात याद करता रहा
कल रात फिर नींद का नाम याद नहीं आया।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-6

रात वो पुड़िया है
जिसमें जंग लगे पुराने ब्लेड के टुकड़े लपेटे गए हैं
जहाँ कटी उंगली का दर्द कैद है
जहाँ घाव में डालने के लिए ज़रूरी नामक सहेजा गया है

नींद वो अभागी भिखारन है
जो दिन भर भीख मांग कर रात को भूखी सो जाती है
नींद वो बच्ची है जो हर बार मेले में खो जाती है

और मैं वो बात हूँ
जो पूरी होने से पहले काट दी जाती है
मैं वो आंख हूँ
जो काँच की किरचों से पाट दी जाती है

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-5

चाँद पर जितने भी दाग़ हैं
वो सभी मेरे अधूरे प्रेम के किस्से हैं
और आसामन में जितने तारे हैं
वो सब वो अभागी जगहें हैं
जहाँ मैंने अपनी प्रेमिकाओं को चूमा था
या चूमते चूमते रह गया था
जहाँ हाँथ थाम कर उसका
मैं जुगनू या दीपक हो गया था
जहाँ झरने की तरह बह था मैं
या पुखराज की तरह पत्थर हो गया था

अनुराग अनंत 

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-4

जैसे अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है
और बोलने को कुछ नहीं
लिखना इस समय हो ही नहीं पाएगा

कसाई की दुकान में सूखे हुए ख़ून
और मेरे आंसूओं में कोई रिश्ता जरूर है
पहाड़ की जड़ों में मेरे किसी पूर्वज का दुख गड़ा है
और मेरे पैरों में तुम्हारी कोई बात
मैं जिस जगह हूँ वहाँ से बढ़ने की सोचता हूँ
और रात भर जागता हूँ

फिर ये कविता सरल हो रही है
इतनी जितना ये वाक्य कि
"मुझे उसकी याद आती है"
जैसे
"जीवन दुःख का दूसरा नाम है"
जैसे
"मुझे नींद नहीं आती"
जैसे
"एक दिन सब को मर जाना है"

बादलों से बरसता पानी, पानी नहीं पाती है
जिसे बाँचता हूँ मैं अपनी त्वचा से
ये किसी मजबूर आदमी के छत से कूद जाने जैसा कुछ है

नेलकटर से नाख़ून की जगह ज़िगर कुतरता मैं
रात से बात करता रहता हूँ
खीज़ कर चाँद पर फेंकता हूँ रस्सी
और लटक जाता हूं हर रात
कागज़ पर नींद के मरने, रात के गिरने
और ख़ुद के लटकने की रपट लिखता हूँ

कविता के आसपास की कोई चीज़ मेरे हाँथ में होती है
मेरी नींद रात के टीले पर रात भर रोती है।

अनुराग अनंत

मंगलवार, अप्रैल 16, 2019

नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-3

तुम हिचकी की तरह आई थी
और किसी दर्द की तरह गई

जाने से कहाँ कोई जाता है
उसका कुछ ना कुछ रह ही जाता है
जैसे मेरी दादी की छड़ी रह गई
और तुम्हारी अनकही बात

खेत में बीज रोपते वक़्त
या किसी ढलान से उतरते हुए
तुम्हारी बहुत याद आती है
मेरा हमशक्ल दीपक के नीचे
अंधेरे की शक्ल में रहता है

ईश्वर जरूर हरी घास के मैदान में बैठा
कोई उदास निठल्ला आदमी है
वो जब जब घांस नोचता है
ज़िगर तक जाने वाली मेरी नसों में खिंचाव उठता है
किसी दिन जब मैं हृदयाघात से मरूँगा जान लेना
ईश्वर की नौकरी लग गई है
और उसने अपने आसपास की सारी घास नोच दी है

रात के तीन बजे जब रात जा चुकी है
दिन आ रहा है
मैं बीच में खड़ा हूँ
किसी एक्सीडेंट के इंतज़ार में
कि नींद की कोई गाड़ी
150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आये
और मुझसे टकरा जाए
मैं जियूँ या मरूँ
कम्बख़त मुझे नींद तो आए।

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-2

जब उंगलियों पर गिनते हुए मैं आठवें पोर पर पहुँचा
रात के रोंओं में आग भभक उठी

तुम्हारे बिखरे और ढीले वाक्यों से झरे अक्षरों ने एक शब्द रचा
जिसका अर्थ ईशा मसीह के सिर पर ठोंकी गई कील सा था

मैंने सलीके से अपनी सलीब उठाई
और नींद ने आख़री सांस ली
सजा सुनने के बाद अपराधी ने अपने खाली जेब में हाँथ डाल कर
ख़ुद को अपने खालीपन में भर लिया
जो काम सृष्टि के पहले दिन से टालता रहा मैं
उस रात आख़िर कर लिया

आखरी बार जब पूछी गयी मेरी इच्छा
तो मेरे साथ उस स्त्री ने भी कहा
हमें रेखाओं को अनदेखा करने दिया जाए
कोई ना बचाए हमें
हमें जीवन की तलाश में मरने दिया जाए

ये बात जो कविता में दर्ज़ हुई है
मेरे किसी जागृत स्वप्न से छिटक कर गिर गई है

अनुराग अनंत

नींद: नौ कविता, ग्यारह क़िस्त-1

स्वप्न मेरा संस्कार था
मैंने जागते हुए स्वप्न देखे
ये रात का अपमान था
और नींद पर लानत

रात ने श्रापा मुझे
और नींद ने धिक्कार दिया

मैं जागते हुए बरसात की रातों को रोता रहा
लोग चिंतित थे
कि पिछवाड़े बहती नदी दिन-ब-दिन खारी क्यों होती जा रही है

सातों समंदर सप्त प्रेमियों के तप्त अश्रु हैं
जो उनकी आत्मा के गड्ढ़ों में एकत्र हुआ
बरसात की रोती रातों में

तुम्हारा स्पर्श हथेलियों पर
भूखे भिखारी की तरह हाय हाय करता रहा
और तुम्हारे घर से दस कदम की दूरी पर
पान की दुकान में एक घायल इंतज़ार तिल तिल कर मरता रहा

ये बिखरे तंतुओं की तरह बिखरी बातें
रात भर जोड़ता रहता हूँ
मेरे भीतर उग आए पहाड़ पर
जागते हुए पत्थर तोड़ता रहता हूँ

जिस रात मैं पत्थर से पानी हो सकूँगा
बस उसी रात फिर से सो सकूँगा

अनुराग अनंत

लिफाफों का दुःख !!

लिफाफों का दुःख
चिठ्ठियों के दुःख से कभी कम नहीं रहा
डाकिए दो दुःखों के बीच पुल बनाते रहे सदा
और गांव की सरहद पर बैठा देवता
एक हज़ार साल पहले किसी के प्रेम में फांसी पर लटक गया था

मेरे पास तुम्हारी दो ही चीजें थीं
एक तुम्हारी स्मृति
और दूसरी तुम्हारी स्मृति की स्मृति
याद और याद की याद

ये ऐसे ही रहा जैसे
दुःख के भीतर दुःख
लिफ़ाफ़े के भीतर चिट्ठी
डाकिए के भीतर पुल
और सरहद पर बैठे देवता के भीतर प्रेमी

अनुराग अनंत

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था !!

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था
तुमनें नयनों में अश्रु दिए थे/ पर मैंने तो सावन मांगा था

तुमनें स्वर्णिम स्वप्न दिखाए 
और स्मृतियों को दिया सहारा
मैं उलझी भटकी नदिया न्यारी
तुमनें मुझको दिया किनारा
मैं हिय मंदिर में रहने वाला
निर्वासित कुलदेव बेचारा
हाँ सच है मैं डूब रहा था
तुमनें मुझको पुनः उबारा

तुमने जग दे डाला मुझको
पर मैंने घर आंगन माँगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था।

जग में जितने दग्द हृदय हैं
सब मंदिर, सब देवालय हैं
पीड़ाओं के शत सिंधु यहां हैं
खंडित हिय के हिमालय हैं
मैं पीड़ाओं का साधक हूँ
तुममें पीड़ाओं के शिवालय हैं।

मैंने उसी पावन पीड़ित मन का
एक पवित्र आलिंगन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

जैसे निद्रा में स्वप्न जागता
वैसे तुम मुझमें जागी थी
तुम प्रेम समर्पण की साधक थी
तुम अनंत अनुरागी थी
नयन तुम्हारे मारक मोहक
तुमने नयनों में पीड़ाएं पागीं थीं

मैंने तुम्हारे निशब्द नयनों का
गंगाजल पावन मांगा था

मुझे देह की चाह नहीं थी/ मैंने तुम्हारा मन मांगा था

अनुराग अनंत

आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों !!

दिमाग़ में कई गालियाँ थीं। और दिल में एक बरजोर नदी। दिमाग़ गलियों में उलझ जाता था। वो धुंध के पार जो है उसे देखने को कहता था। दिल मानता ही नहीं था। कहता था, "मंजिल तक जाए बिना रुक नहीं सकता, जो पहाड़ी, रोड़े, ईंट, पत्थर आएंगे, वो मेरे वेग का शिकार होंगे"।

एक रात जब दिल अंधे मोड़ से टकरा कर उससे रास्ता तराश रहा था। दिमाग़ ने दिल के कंधे पर हाँथ रख कर कहा कि तुम जिसे मंज़िल मानते हो वो किसी और रास्ते पर है। तुम जितनी दूर उसके पीछे चलोगे। वो उतनी ही आगे उस रास्ते पर निकल जाएगा। या फिर किसी और रास्ते पर।

दिल अब दिमाग़ से लिपट चुका था। आँसू आंखों से बाहर आ कर इस विस्फोट के साक्षी हो रहे थे। यही कोई रात के तीन बजे होंगे। दिमाग़ ख़ामोश था। उसने अपनी बात इतनी बार दोहराई थी कि उसे अब कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। दिल बैठा कुछ गुनगुना रहा था। हाँथ में उसके स्वाद बदलने वाली सिगरेट थी और आंखों में सूनापन। दिल हार नहीं मानता। उस रात भी नहीं माना। लेकिन अब वो पहले सा बेसब्र नहीं था। दिमाग़ ने कहा चलो क्या यही कम है कि थोड़ा संभले तो तुम। दोनों खिलखिला के हँसे। सूरज आसमान पर उगा और रात भर इंतज़ार करती नींद ने शिक़ायत की, "आज फिर रात भर नहीं सोए ना तुम दोनों"

अनुराग अनंत

मैं कविता की आग में जल मरूंगा !!

सुनों !
मुझे जलने की धुन सवार है
जैसे सवार थी उस बौद्ध भिछुक पर
जो चाइना मुर्दाबाद करते हुए जल गया
या फिर उस स्टूडेंट की तरह
जो तेलंगाना जिन्दाबाद करते हुए मर गया

मेरे हांथो में पत्थर है
और सीने में गोली
मुझे मारने में तुम्हे मुश्किल से दो मिनट लगे
पर खत्म करने में सदियाँ कम पड़ेंगी

मैं आवाजों के घेरे में घिरे हुए आदमियों की आवाजों से घिरा हूँ
मेरी चिंता में काली तस्वीरें है
और खून में लिथड़ा एक अँधेरा रो रहा है

तुम्हारी चिंता में सुनहरे पंख और मरमरी बदन हैं
सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना और शाम का भोजन है
फ़िल्में, गाने, चुटकुले, प्यार की अफवाहें और अश्लील हंसी तुम्हारे चारो तरफ पसरी है
और मेरे चारो तरफ है नारे और खामोश घुटन, सन्नाटा और शोर

एक आग है, एक नंगी आग है मेरे चारो तरफ
जिसमे मैं जल मरूंगा
सुनो!
मैं जल मरूंगा
जैसे जले हैं मुझ जैसे ही कई

मेरे जलने की दुपहर तुम कहना
गर्मी कितनी ज्यादा है, अबकी सर्दी बहुत ज्यादा पड़ेगी
थोड़ी सी जम्हाई आएगी तुन्हें
और तुम कहोगे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता
भ्रष्टाचार इस देश को डूबा देगा

तुम चिंता करना कि
सचिन सौ सेंचुरी मार पायेगा कि नहीं ?
सलमान शादी करेगा कि नहीं ?
तुम भगवान से मनाना
शाहरुख खान कभी बूढा न हो
अमिताभ बच्चन कभी न मरे
राखी सावंत पर तुम चर्चा करना
और निष्कर्ष निकलना कि वो चरित्रहीन है
तुम बेवजह हंसना और रोना
फिर भूल जाना कि आज तुमने क्या कहा था
आज क्या हुआ था या किया था
ताकि तुम कल फिर वही बातें कह सको
तुम कल फिर वही काम कर सको

और मुझे कल फिर जलना पड़े

सुनो!
मुझे जलने की धुन सवार है
मैं कविता की आग में जल मरूंगा

अनुराग अनंत

सोमवार, फ़रवरी 12, 2018

दिल्ली..!!

तुम दिल्ली थी
तुम्हें हर कोई पाना चाहता था

मैं भी दिल्ली था
मुझे हर कोई लूट लेना चाहता था

हम दोनों का दिल भी दिल्ली था
सौ बार उजड़ने के बाद भी
बस ही जाता था

समय भी दिल्ली था
वो मुझे, तुम्हें, हमारे दिल को
'कुछ नहीं' समझता था

लोग भी दिल्ली थे
'सब कुछ' समझते थे
कभी चुप रहते थे
कभी हँसते थे

वो बात भी दिल्ली थी
जो हमारी कहन की पहुँच से
हमेशा दूर ही रही

एक बात बताओ न
सब दिल्ली-दिल्ली क्यों है यहाँ ?

अनुराग अनंत

तेरा चेहरा वो खंज़र है हुस्ना..!!

हुस्ना तेरे साथ बिताया हर लम्हा
रह रह कर कविता बनकर रिसता है
भीतर है कोई जो तेरी याद में रोता है
बाहर है कोई जो हर एक बात पर हंसता है
तेरा चेहरा वो खंज़र है हुस्ना 
जिसका क्या कहना
वो हर धड़कन के साथ
थोड़ा और ज़िगर में धंसता है
हुस्ना तेरे साथ बिताया हर लम्हा
रह रह कर कविता बनकर रिसता है...
अनुराग अनंत

गुरुवार, दिसंबर 28, 2017

दिल की बात !!

मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि
मैं आजतक वो नहीं कह सका
जो मुझे कहना था

मैं अकेला नहीं हूँ
तुम भी हो मेरे साथ
जो नहीं कह पाया है दिल की बात

फ़र्क बस इतना है कि
मैं ये बात कह पा रहा हूँ
और तुम हो कि
इतना भी नहीं कह पाते

मुझे मेरी ख़ामोशी में चुभन महसूस होती है
इसलिए मैं कविता बनाता हूँ

तुम्हें तुम्हारी ख़ामोशी महसूस ही नहीं होती
इसलिए तुम बेवकूफ बनाते हो
खुद को भी
और दुनिया को भी

अनुराग अनंत

सोमवार, दिसंबर 25, 2017

प्यार...!!

प्यार से
सबसे पहले आधा 'प' अलग हुआ
और बचा सिर्फ 'यार'
जिसमे बाद में
'र' रुपये में बदल गया
और 'या' से याद ही बची सीने में

और तुम हो कि पूछते हो
मजा आ रहा है जीने में ?

अनुराग अनंत

मैं एक रहस्य ही हूँ..!!

मैं खुद को एक नदी समझता था
और वो मुझे एक तालाब समझती थी
मुझे लगता था
मैं नदी की तरह आगे निकल जाऊंगा
और उसे लगता था कि
मैं तालाब की तरह वहीँ रह जाऊंगा

वो ना तालाब थी, ना नदी
वो पानी थी
और उसके जाने के बाद
मैं ना तालाब रहा, ना नदी

मैं क्या हूँ ?
अब ये एक रहस्य है

और शायद
मैं एक रहस्य ही हूँ !!

अनुराग अनंत

बुधवार, दिसंबर 20, 2017

एक अधूरी सी कहानी..!!

एक अधूरी रात
अधूरा इश्क़
अधूरी ज़िंदगी

एक अधूरी मुलाकात
अधूरा ख़ुदा
अधूरी बंदगी

एक अधूरी वाह
अधूरी आह
अधूरी चाह है

एक अधूरी नदी
अधूरा समंदर
अधूरी थाह है

एक अधूरा सा कदम है
एक अधूरा सा सनम है
एक अधूरे से हम हैं

एक अधूरा सा ख़्वाब है
एक अधूरा सा जवाब है
एक अधूरा इन्तेख़ाब है

एक अधूरा सा अधूरापन अधूरा रह गया है
कोई अधूरी बात में अधूरी बात अपनी कह गया है
ये अधूरा खंडहर, अधूरा खड़ा, अधूरा ढह गया है
ये अधूरा सा अश्क़, अधूरा है, अधूरा बह गया है

यह अधूरापन पूरा कर रहा है जिंदगानी
क्या है मेरा तआरुफ़ जो पूछो ,तो बताऊं !
एक अधूरी सी व्यथा है, एक अधूरी सी कहानी ।।

अनुराग अनंत

नैना तेरे दरस बिना...!!

बांझ हुए नैना तेरे दरस बिना
इन नैनन का यारा अब क्या करना

इन नैनन से देखा तुझको
अब कुछ देखन को न जिया करे
तुझको देख के जीते मरते थे
अब कैसे जिएं और कैसे मरें
नयनों से अश्क़ झरे ऐसे
जैसे झरता हो कोई झरना

बांझ हुए नैना तेरे दरस बिना....

नयना के सब रंग उतर गए
सपने सब के सब बिखर गए
तुम रंग थे मेरे इन नयनों के
तुम बिन बेरंग हुए नयना
मेरे नयना सजना भूल गए
जब से बिछड़े तुम सजना

बांझ हुए नैना तेरे दरस बिना.....

न देखूँ जग न याद जगे
न तुझको देखन की लाग लगे
जो तू ही मुझसे बिछड़ गया
तो क्यों न बिछड़ें ये नयना
जो तू ही जीवन मे रहा नहीं
तो फिर इन नयनों का क्या रहना

बांझ हुए नैना तेरे दरस बिना
इन नैनन का यारा अब क्या करना....

अनुराग अनंत

गुरुवार, दिसंबर 07, 2017

या रब अब दंगा न दीजो !!

हमसे उन्होंने कहा
कि हमें मंदिर बनाना है
हमें मस्जिद बनाना है
उन्होंने हमें बताया
कि हमारे राम को खतरा है
हमारे रहीम पर मुसीबत है
उन्होंने हमें दलीलें दीं
कि हमारे धर्म को मिटाने की साजिश हो रही है
हमारे दीन को कोई खतम करना चाहता है
उन्होंने हमसे कहा
कि हमें ये सब बचाने के लिए आपस में लड़ना पड़ेगा
और हम उनकी बात मन कर लड़ने लगे
लड़ाई हुई, दंगे हुए
लड़ाई-दंगों में
मंदिरें टूटीं
मस्जेदें टूटीं
राम मरा
रहीम क़त्ल हुआ
हमारा धर्म और दीन छाती पीट-पीट कर हमारी लाशों पर रोते रहे

और जिन्होंने हमें लड़ने के लिए कहा था
वो हमारे घरों में हमारी बहन-बेटियों की इज्जत से खेलते रहे
हमारे घर लूटते रहे
चुनाव जीत कर सरकार बनाते रहे
टीवी पर आते-जाते रहे
अखबारों पर मुस्कुराते रहे
बड़ी-बड़ी इमारतों पर झंडा फहराते रहे
राष्ट्रगान गाते रहे
यज्ञ-हवन और अभिषेक करते रहे
अजान-नमाज़ और रोज़े अता करते रहे

और हम जो जिन्दा आदमी थे कभी
महज़ गीनती और तारीख भर हो कर रह गए

अनुराग अनंत

हम भारत के भूखे लोग..!!

पेट जब पीठ पर टिक जाता है
तो कोई तर्क नहीं टिकता है
चाँद, चाँद नहीं रहता
चाँद रोटी हो जाता है।

आदमी जितना निरीह होता जाता है
उतना ख़तरनाक़ और खूंखार हो जाता है
भूखा आदमी सवाल हो जाता है,
बवाल हो जाता है
दीवार हो जाता है

वो चौराहे के बीचोबीच खड़ा हो कर
दर्ज़ करता है, अपना हस्तक्षेप !!
और प्रस्तावना में 'हम भारत के लोग...'
की जगह लिख देना चाहता है
हम 'भारत के भूखे लोग....'

पर ठीक उसी समय याद आता है
भूख से पहले उसके पास जाति है
धर्म है, क्षेत्र है, भाषा है, और गर्व है

जिस दिन वो भूख के अलावा सबकुछ भूल जाएगा
उसदिन बादशाह को छट्ठी का दूध याद आ जाएगा।

अनुराग अनंत

आदमी आदी हो गया है..!!

आदमी आदी हो गया है
आदमियों की नकल का

वो फ़ायदा उठता है
आदमियों जैसे हाँथ-पैर
पेट,पीठ और शकल का

आप किसी आदमी जैसे को
आदमी समझ लेते हैं
इस तरह एक भरम है
जो आदमियत की परिभाषा हो गया है

आदमी गोल-मटोल तर्क हो गया है
एक चुकी हुई भोथरी भाषा हो गया है

ये आदमी अकेले में आईने से डरता है
और जिस दिन सच्चाई से आईना देख लेता है
बस उसी दिन मरता है

आदमी, आदमी जैसे काम बहुत कम करता है
जब सर तान कर चलने की जरूरत होती है
वो रपट कर गिरता है
आदमी मरते हुए जीता है
और जीते हुए मरता है
आदमी, आदमी जैसे काम बहुत कम करता है।

अनुराग अनंत

और बड़ा सपना..!!

एक दिन मेरा मन किया, मैं कुछ बहुत अच्छा लिखूँ।

मैंने तुम्हारा नाम लिखा।

और फिर दुनिया की सारी कविताओं ने दाद दी
सारे कवि अचंभे से निहारते रहे मुझे
मेरे आस-पास मोर के पंख की तरह बिखर गए संसार के सारे महाकाव्य

इस तरह मैं, मैं नहीं रहा
मुझे एक झटके से पता चला
सपना जब कागज पर उतरता है
तो और बड़ा सपना हो जाता है

अनुराग अनंत

'मैं' से 'तुम' तक की सुरंग !!

सुरंगों के इस देश में
जहाँ हर शहर, कस्बे और मुहल्ले में
किसी न किसी सुरंग का किस्सा आम है

मैं भी एक सुरंग ढूंढ रहा हूँ
जो मुझसे हो कर तुम तक पहुंचती हो

कोई मुझमें प्रवेश करे तो तुममें निकले
कोई तुममे डूबे तो मुझमे उतराए

मैं आजकल बस दिन रात वही सुरंग ढूढ़ रहा हूँ
और लोग हैं कि कहते हैं
मैं कवि होता जा रहा हूँ
शायर सा दिखने लगा हूँ
मैं बदलता जा रहा हूँ

मुझे भी लगता है
गर नहीं ढूढ़ पाया ऐसी सुरंग
तो इस तरह बदल जाऊंगा
कि सुरंग हो जाऊंगा

'मैं' से 'तुम' तक की सुरंग !

अनुराग अनंत

संभावनाएं !!

संभावनाएं संभव है सारी संभावना खो दें
और भावनाएं अनाथ भवनों के अहाते में लावारिश पशुओं सी बेड़ दीं जाएं

आँसूओं में बहें आशाएं
और आशंकाओं पर जा कर टिक जाएं आस्थाएं

वो आएं तो शायद इस तरह आएं
कि बदल जाएं सब की सब परिभाषाएं
अपनी पीठ खुजलाने को रीरियाए व्याकरण
और किसी दरबारी कवि सी हो जाएं भाषाएं

जो तुम देखो तो हर आदमी में तुम्हें सधा हुआ आदमी दिखे
हर आदमी में बंधा हुआ आदमी दिखे

मन में पालती मारकर बैठ जाए पागलपन
और जो तुम उसको एक छंटाक परसो
तो ज़िद करके तुमसे मांगे
खाने को एक मन

रात के अंधेरे में गूंजता रहे
'भात-भात' का संगीत
और दूर कहीं कोई माँ
अपने बच्चे की लाश पर
लालसाओं का लेप लगा कर
सुरक्षित कर ले
भीतर बहुत भीतर किसी तहखाने में

संभावना ये भी है कि जब तुम्हें चीख़ कर रोना हो
अपने डर को खोना हो
तुम्हें मिल जाए कोई क़िताब
तुम उसकी प्रस्तावना पढ़ो
और घटित होने पर आमादा किसी घटना की तरह
घटित होने से पहले ही स्थगित हो जाओ
अनुराग अनंत

गुरुवार, जुलाई 20, 2017

प्रेम और परिवर्तन..!!

जब आवाज़ों में घुला हुआ सन्नाटा
और सन्नाटों में लिपटी हुई आवाज़
सुनाई देने लगे तुम्हे

और तुम रातों के दोनों सिरों के बीच
उलझन के पुल पर
सवालों की छड़ी टेकते हुए चलो
तो समझना कि कोई उतरा है
तुम्हारे दिल के सरोवर में इस तरह
कि पूरा पानी गुलाबी हो गया है

या टूटा है भीतर कुछ इस तरह
कि छप्पर से टपकने लगी हैं
बरसात की बूँदें
और सुकून के बिस्तर पर लेटा यक़ीन
भीग कर एकदम खारा हो गया है

तुम ऐसे में तलाशोगे जब खुद को कभी
तब शब्दों के मर चुके अर्थों के बगल बैठा हुआ पाओगे

आंसू तुम्हें उस समय
तुम्हारी आत्मा की नदी से बहती हुई
एक धारा लगेंगे

और ख़ामोशी उस नदी में तिरती हुई नाव

निर्वात से संघात के इस समय
जब सबकुछ बदल रहा होगा
तुम महसूसना कहीं किसी कोने में बैठकर
तुम्हारा "मैं" तुम्हे गढ़ रहा होगा

कोई तुम्हारे भीतर इसतरह बढ़ रहा होगा
जैसे बढ़ती है बरसात में नदी

सबकुछ डूबा देने के लिए
पुराने को मिटा देने के लिए
नए को जगह देने के लिए

प्रेम और परिवर्तन
दोनों उलझन के पाँव से चल कर आते हैं
और हमारे भीतर, बहुत भीतर
इस तरह गहराते हैं

कि हम प्रेमी बन जाते हैं
परिवर्तित हो जाते हैं

तुम्हारा-अनंत     

अभिशप्त नट..!!

चादर पर पड़ी सिलवट
मेरी परेशानियों की केचुल है
और बिस्तर पर जागती करवट
उस किताब के पन्ने पलटने की क्रिया
जिसमे दर्ज हुआ है, मेरा अतीत
और लिखा जाना है मेरा भविष्य

मैं उन जगती हुई आँखों की तरह हूँ
जिसमे भरीं हैं स्मृतियों की किरचें
और खाली कर दी गयी है नींद

जागना, जेठ की दोपहरी में
तपती सड़क पर नंगे पाँव चलना है
और ठहरना अपनी नसें काट कर मुस्कुराने जैसा कुछ

खाली बटुए का सन्नाटा
कोई मायूस फिल्म है
जिसे देख कर मन अजीब सा उदास हो जाता है
और सपना वो जरुरत जो जीने के लिए जरूरी है

यथार्थ भ्रम का प्रतिबिम्ब है
और भ्रम तो भ्रम है ही

सैकड़ों जागती रातों ने मुझे ये सत्य बताया है
कि जन्म और मृत्यु कुछ नहीं हैं
सिवाए दो बिंदुओं के
जिनके बीच तान कर बाँध दिया गया है जीवन

जिस पर अभिशप्त नट की तरह चलते हैं हम
शरू से लेकर अंत तक

तुम्हारा-अनंत

 

सोमवार, जुलाई 17, 2017

खाली सफ़े की कविता

जो लिखा है
सब अधूरा है, लाचार है
इसलिए कभी कभी सोचता हूँ
लिखना बेकार है

किसी दिन छोड़ दूंगा खाली सफ़ा
जो मन में आए पढ़ लेना उसपे
तुम्हारे और मेरे अनकहे, अनसुने की
इससे बेहतर दूसरी कोई कविता
हो ही नहीं सकती

खाली सफ़े भी कविता होते हैं
पर हम उन्हें पढ़ नहीं पाते
जैसे हम अक्सर पढ़ नहीं पाते
किसी का मन और मौन

तुम्हारा- अनंत



गुरुवार, जुलाई 13, 2017

आदिकवि

वो आदिकवि
अभिवक्ति के मामले में सबसे असफल व्यक्ति रहा होगा
जो अपने भीतर अटकी बात को
लाखों बार, हज़ारों तरीके से कहने के बाद भी नहीं कह सका
रचनाओं पे रचनाएँ, रचता रहा
पर वो नहीं रच सका, जो उसके भीतर
फकीरों की तरह भटकता था
अधमरे आदमी की तरह कराहता था
पागलों की तरह चीखता था
और स्त्रियों की तरह रोता था
वो कभी कभी
बच्चों की तरह मुस्काता भी था
पर ऐसा कम ही होता था

आदिकवि नहीं रच सका
वो जो रचना चाहता था
नहीं कह सका वो जो कहना चाहता था
वो हर युग में जन्म लेता रहा
और अपने असमर्थता को पूरे सामर्थ से जीता रहा
अपने भीतर अटकी हुई बात को
हज़ार तरीके से कहता रहा
और कोई पुराना मकान जैसे आधी रात को बरसात में ढहता है
ठीक वैसे ढहता रहा

दुनिया वालों !
तुम उसकी बिखरन, टूटन उठाते रहे
कविता की तरह गाते रहे
कवि को  ब्रह्म बताते रहे
बिना ये जाने कि कवि सबसे मजबूर और असहाय व्यक्ति होता है
बिलकुल दंगों में बीच सड़क पर खड़े अनाथ बच्चे की तरह

वो जो नहीं लिख सका है कवि
वही लिखा जाना है
आज नहीं तो कल
तब तक जारी रहेगी असमर्थता के उस पार निकल जाने की जिद्द

तुम्हारा-अनंत

मंगलवार, जुलाई 04, 2017

आशा के गीत लिखूंगा मैं....!!

इस पतझड़ में, घोर निराशा में
आशा के गीत लिखूंगा मैं
जब क्षण-क्षण में छाई पराजय है
तब कण कण में जीत लिखूंगा मैं

जब मित्रों में शत्रु उग आए हों
तब शत्रु से प्रीत लिखूंगा मैं
जब अपनों में परायापन जागा हो
तब परायों को मीत लिखूंगा मैं
इस पतझड़ में, घोर निराशा में
आशा के गीत लिखूंगा मैं............!!

मैं घोर तिमिर की गोदी में
दीपक लिख कर आऊंगा
मैं संघर्षों की वेदी पर
बलिदानों का रूपक लिख कर आऊंगा

मैं विकट विवशता के पल में
धरणी का धैर्य लिखूंगा अब
मैं कायरता के कलि कपाट पर
शोणित का शौर्य लिखूंगा अब

राहों के रोड़ों से कह दो
राही गिरना भूल गया है
अब उस सपने को भी चलना होगा
जोकि चलना भूल गया था

मृत्यु के मौसम में झरते, अश्रु के होठों पर
मलमल की मुस्कान लिखूंगा मैं
मन की मरुभूमि में मरते अरमानों के
माथों पर जान लिखूंगा मैं

उलझन में उलझे विस्तृत वितान के मगन मौन पर
जीवन की लय में बहता हँसता संगीत लिखूंगा मैं
इस पतझड़ में, घोर निराशा में
आशा के गीत लिखूंगा मैं...........!!

वज्रों की वर्षा में भी अब
मैं पुष्पों सा खड़ा रहूँगा
दारुण दुःख के दरिया में
चिर चट्टानों सा अड़ा रहूँगा

है विधि वारिध में जितनी लहरे
मैं सब के सब से टकराऊँगा
हिय में शूल धसें हो फिर भी
मैं मुस्काऊँगा, गाऊंगा, लहराऊंगा

जीवन राग में रंगी हुई
रक्तिम रीत लिखूंगा मैं
इस पतझड़ में, घोर निराशा में
आशा के गीत लिखूंगा मैं...........!!

तुम्हारा-अनंत

सोमवार, जुलाई 03, 2017

तेरी याद आती है.....!!

एक टुकड़ा याद अटकी है साँसों में
मैं जी रहा हूँ तो वो भी जी रही है
जब-जब ये सांस आती है
तब-तब तेरी याद आती है
तेरी याद तड़पाती है
तरसाती है, जलाती है
तेरी याद आती है.....!!

तेरे क़दमों का हर एक निशाँ
मक्का मदीना है मेरा
तेरी याद एक समंदर है
जिसमे खोया सफ़ीना है मेरा
तेरे नाम की पाकीज़ा लहरें
मुझको मुझ तक पहुंचती है
तेरी याद आती है.....!!

तेरी यादों के बिन जीना
यारा जो मुमकिन होता
मैं एक लम्हा भी ना जीता
तेरी यादों में ही मर जाता
तेरी यादें वो पोशीदा* धुन हैं
जिन पर मेरी धड़कन गाती है
तेरी याद आती है.....!!

 
तेरी यादें ही वो रास्ता है
जिस पर दिल ये चलता है
जो इसको थोड़ा छेड़ दूँ मैं
ये बच्चों जैसा मचलता है
जब दिल उलझ सा जाता है
तेरी याद उलझन को सुलझती है
तेरी याद आती है.....!!

तुम्हारा-अनंत

*अज्ञात, गुप्त, अप्रकट, छिपा 

इश्क़ का कारोबार..!!

तेरी झूठी झूठी आँखों से
मुझे सच्चा सच्चा प्यार हुआ
मैंने लाख समझाया था दिल को
पर सब समझाना बेकार हुआ
आँखों ने किया आँखों का सौदा
और इश्क़ का कारोबार हुआ
कल से लेकर आज तलक
ऐसा ही हर बार हुआ
इश्क़ का कारोबार हुआ
ऐसा इश्क़ का कारोबार हुआ-2

तेरी थिरकन पे थिरके थे कदम
फिर कहाँ बचे थे हम में हम
रोम रोम सब गिरह खुली
साँस-साँस बरसा सावन
बेफ़िकरी का आलम भी कटा
और मुझमे मैं बेदार हुआ
इश्क़ का कारोबार हुआ
ऐसा इश्क़ का कारोबार हुआ-2

इस दुनिया में ही था मैं
पर इस दुनिया का रहा नहीं
तू मुझसे वो सबकुछ बोला
जो अबतक किसी ने कहा नहीं
जो कुछ अनगढ़ था भीतर-भीतर
वो सबकुछ बन कर तैयार हुआ
इश्क़ का कारोबार हुआ
ऐसा इश्क़ का कारोबार हुआ-2

तेरा झूठा-झूठा सच जो है
सच में सच से भी सच्चा है
इससे अच्छा कुछ भी नहीं
बस ये ही सबसे अच्छा है
तेरे झूठ की गीली मिटटी से
मेरे सच का बदन साकार हुआ
इश्क़ का कारोबार हुआ
ऐसा इश्क़ का कारोबार हुआ-2

तुम्हारा-अनंत


सोमवार, जून 12, 2017

स्वाहा, आहा और वाह !!

जिस समय हत्याओं की साजिशें
महायज्ञ की तरह की जा रहीं हैं
और सबको स्वाहा में एक आहा खोजने को कहा जा रहा है
तुम उसी समय अपनी कलम में धार करो
इसलिए नहीं क्योंकि इसकी जरूरत है
बल्कि इसलिए क्योंकि ये तुम्हारी मजबूरी है

अगर तुम्हारी कलम में धार
और आवाज़ में आधार नहीं होगा
तो तुम भी गुब्बारे की तरह हवा में उड़ोगे
उसी रास्ते पर बढ़ोगे
जहाँ आखरी में एक खाईं है
और उसकी बाट पर बैठा हुआ एक नाई है
वो पहले उस्तुरे से  तुम्हारी हज़ामत बनाएगा
और फिर उस तरह से तुम्हारी गर्दन उड़ाएगा
कि उसके स्वाहा कहने पर
तुम्हारे मुंह से आहा का स्वर निकलता हुआ सुनाई देगा
ठीक उसी समय तुम्हे हर कोई वाह कहता दिखाई देगा

इसीलिए तुम अपनी कलम की धार तेज करो
और स्वाहा, आहा और वाह के सामने
चीखती हुई आह लिखो
ताकि सनद रहे
कि तुमने स्वाहा, आहा और वाह के समय में भी
आह में आह ही लिखा है !!
आह को आह ही कहा है !!

तुम्हारा-अनंत  
   

सूरत बदली जाती है...!!

सीने की आग, बर्फ सी चुप्पी
धीरे धीरे पिघलाती है
सड़कों पर तनती है मुट्ठी
जगह जगह लहराती है
गाती है, गाती है, जवानी
गीत वही दोहराती है
मेरा रंग दे बसंती चोला वाला
गीत वही दोहराती है
सूरत बदली जाती है
हाँ सूरत बदली जाती है-2

जो तख़्त पे बैठा, बना बादशाह
मूछों पे हाँथ फिराता है
छप्पन इंची वाला सीना
ठोंक ठोंक इतराता है
रोता है, गाता है, देखो
कितने करतब दिखलाता है
बम, गोली, लाठी, डंडे
सब हथकंडे आजमाता है
उस तानशाह के हस्ती
हम मस्तों की मस्ती से थर्राती है
सूरत बदली जाती है
हाँ सूरत बदली जाती है-2

दबी दबी आवाज़ों में भी
कुछ इंक़लाब सा घुलता है
ठन्डे पड़े जिगर में फिर से
लावा कोई उबलता है
जज़्बा सरफ़रोशी का
रह रह कर आज मचलता है
चाहे जितना तेज़ तपे
दमन का सूरज एक दिन ढलता है
जब जब हुई लड़ाई हम ही जीते हैं
दुनिया की तारीख़ यही बताती है
सूरत बदली जाती है
हाँ सूरत बदली जाती है-2

सूखे ख़ून के धब्बे कहते
नहीं सहेंगे जुल्म तेरा
सौ में पूरे नब्बे कहते
नहीं सहेंगे जुल्म तेरा
पॉवों में पड़ी बेड़ियाँ कहती
नहीं सहेंगे जुल्म तेरा
बेटे और बेटियां कहती
नहीं सहेंगे जुल्म तेरा
उठती आवाज़ों के सामने
जुल्मी की गर्दन झुकती जाती है
सूरत बदली जाती है
हाँ सूरत बदली जाती है-2

तुम्हारा-अनंत

रविवार, जून 11, 2017

मोरा पिया नहीं है पास..!!

पतंग याद की
रात की डोरी
उलझन का आकाश
मोरा पिया नहीं है पास-2

आग का दरिया
डूब के जाना
पानी में बहती प्यास
मोरा पिया नहीं है पास-2

शाम सी ढलती
रह रह जलती
जैसे दीपक में जले कपास
मोरा पिया नहीं है पास-2

खारे खारे
लम्हे सारे
मिट गयी सारी मिठास
कि मोरा पिया नहीं है पास-2

दरश जो पाऊं
मैं सुस्ताऊँ
सांस में आये सांस
मोरा पिया नहीं है पास
कि मोरा पिया नहीं है पास-2

तुम्हारा-अनंत

गुरुवार, जून 01, 2017

तल्खियां तेरी आँखों की...!!

तल्खियां तेरी आँखों की बहुत चुभती है
आग ज़िगर में जलती है, आह उठती है

फिर सोचता हूँ, मुझ पर इतना तो करम है
मेरे वास्ते तल्खियां हैं, तो ये भी कहाँ कम हैं

ख़्वाब तेरे सजाए हैं, हमने दिल पत्थर करके
अब टूट भी जाए ये पत्थर तो कहाँ गम है

तेरी आरजू करके काम दिल से ले लिया हमने
अब इस नाकाम दिल का और कोई काम नहीं

तेरी ज़ुस्तज़ू में भटकती धड़कनों को सुकूं है अब
जो दो घडी आराम से बैठ जाएँ तो आराम नहीं

तर्के-ए-मुहब्बत तूने कर लिया पर हमसे न हुआ
हम अब भी तेरे एहसासों के साए में जिया करते हैं

अजब नशा सा है तेरी उल्फत के आंसुओं में सनम
हम मय में घोल के अब खुद के अश्क पिया करते हैं

सब रास्ते जो बंद हो गए हैं तो अब एक ही रास्ता है
कोई नया रास्ता बनाएंगे एक नए रास्ते के लिए

जो सब वास्ते मिट गए तो अब एक ही वास्ता है
कोई नया वास्ता बनाएंगे एक नए वास्ते के लिए

मैं लाख कह दूँ तुझसे पर वो बात कह न पाऊंगा
जो बात मेरी जान में जान की तरह अटकी है

तू वो उलझी हुई गली है जो मंज़िल तक जाती है
तू वही गली है कि जिसमे जिंदगी मेरी भटकी है

मेरी कहानी जो कहानी कहती है तो यही कहती है
कुछ तल्खियां हैं जो मुझमे साँसों की तरह बहती है

तल्खियां तेरी आँखों की बहुत चुभती है
आग ज़िगर में जलती है, आह उठती है

तुम्हारा-अनंत

मंगलवार, मई 30, 2017

ये किसका कुसूर है... !!

मैं जो तुझसे दूर हूँ
तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है
ये किसका कुसूर है....!!

तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है... !!

रात ये जो ना ढले
दिल में आग सी जले
चुभ रहा नशा नशा
दम घोटता सुरूर है
तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है....
ये किसका कुसूर है... !!

ये जो जिस्म की ज़ंज़ीर है
कफ़स कफ़स शरीर है
यूं ख्वाब सारे जल रहे
जैसे जल रहा कपूर है
तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है....
ये किसका कुसूर है... !!

धड़कनों की ताल पे
यादों की खाल पे
तेरा ख्याल तुपक रहा
जैसे कोई नासूर है
तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है....
ये किसका कुसूर है... !!

हम दोनों यूं बिछड़ गए
जैसे झोपड़े उजड़ गए
समय की सरकार है
समय साहब है, हुजूर है
तू जो मुझसे दूर है
ये किसका कुसूर है....
ये किसका कुसूर है... !!

तुम्हारा-अनंत

सोमवार, मई 29, 2017

सुलगती हुई लड़की, टूटता हुआ लड़का...!!

काजल आज यूनिवर्सिटी छोड़ रही थी। आज इलाहाबाद में उसका आखरी दिन था। इसलिए वो तेज़ क़दमों ने यूनियन हॉल की तरफ बढ़ रही थी।  उसकी आँखों में एक तलाश थी। जिसका नाम अचल था। अचल पिछले पंद्रह सालों से यूनिवर्सिटी में ही था। पहले BA फिर डबल MA फिर LLB और अब Ph.D चल रही थी। बीच में दो-तीन साल आरती के चक्कर में जेल में भी था।

यूनियन हॉल में अचल सफ़ेद कुर्ता, लाल साफा और नीली जींस पहने हुए मिल गया। काजल ने अचल का हाँथ थामा और उसे यूनियन हॉल के बहार भाभी की चाय की दुकान तक घसीटते हुए ले आयी। अचल ने आश्चर्य से पूछा, क्या हुआ काजल ? कोई बात है क्या ? काजल ने कहा, "हाँ है, और जो आज तुमसे नहीं कह पायी तो ज़िन्दगी भर खुद को माफ़ नहीं कर पाउंगीं। कल मैं इलाहाबाद छोड़ कर जा रही हूँ अचल !!" अचल कुछ बोलता इससे पहले एक गुजरते हुए साथी ने "कॉमरेड लाल सलाम" कर दिया। अचल, काजल को "थोड़ा रुको, मैं आता हूँ" कहते हुए आगे बढ़ गया। काजल कुछ देर खड़ी रही और फिर अचल के पास जा कर कहा, "शाम पांच बजे सरस्वती घाट पर मिलो, नहीं मिले तो फिर कभी नहीं मिल सकोगे"। अचल, ''अरे रुको बात करते हैं......" काजल मुड़ी और तेज़ क़दमों से हॉस्टल की ओर चल पड़ी। प्रॉक्टर ऑफिस पर छात्र प्रदर्शन कर रहे थे, और वहां बाइक से पहुंचा अचल, एक साधारण लड़के से “कॉमरेड अचल” में बदल गया। काजल ने अचल को “कॉमरेड अचल” बनते देखा और गर्ल्स हॉस्टल चली गयी।

पांच बजने से आधे घंटे पहले ही काजल सरस्वती घाट पहुँच गयी।  सूरज अभी तप रहा था। अभी ठीक से शाम नहीं हुई थी। इसलिए काजल पेड़ के नीचे बैठ गयी। एक घंटे काजल ने इंतज़ार किया और साढ़े पांच बजे जब गंगा आरती की तैयारी होने लगी तो काजल चलने का मन बनाने लगी। तभी उसने देखा अचल चला रहा है। उसकी चाल ऐसी थी कि कोई जी भर देख ले तो प्यार कर बैठे। काजल सीढ़ियों से उतर कर आखरी सीढ़ी पर गंगा में पैर डाल कर बैठ गयी। अचल भी काजल के बगल में जा कर बैठ गया। काजल और अचल के बीच फैले सन्नाटे को तोड़ते हुए अचल ने कहा, "काजल, वो पुल देख रही हो। लोहे का, नट-बोल्ट से कसा हुआ"
काजल- हाँ देख रही हूँ। 
अचल- उसे देख कर क्या ख्याल आता है?
काजल- कोई ख्याल नहीं आताअसल में, कभी ऐसे सोचा नहीं।
अचल- आज के बाद जब तुम पुल देखोगी तो तुम्हे मेरा ख्याल आएगा।

काजल को जाने क्या हुआ कि उसकी आँखों में आसूं गए। उसने अचल का हाँथ, हांथों में थाम लिया। ''  अचल मैं तुमसे प्यार करती हूँ अचल, मैं  तुम्हें ये बताना चाहती थी" काजल ने भरी-भरी आवाज़ में कहा।

अचल- मैं जानता हूँ काजल !
काजल- तुमसे मिलने के बाद मुझे पहली बार लगा कि मैं सिर्फ एक लड़की नहीं हूँ। एक इंसान भी हूँ। नहीं तो जब से दुपट्टा लेने लगी, मुझे एहसास कराया गया कि लड़की होना एक चौकीदार होना है। जिसे अपने जिस्म में छुपी हुई एक अदृश्य तिजोरी की रखवाली करनी है।

अचल को काजल की बात पर हंसी गयी और काजल शरमा गयी।

अचल ने कहा, " दुष्यंत कुमार को जानती हो? लाजवाब शायर था। इंक़लाब लिखता था। इश्क़ से उपजा इंक़लाब। वो यहां कीडगंज में किराए का कमरा ले कर रहता था। वहीँ किसी लड़की से इश्क़ कर बैठा। फिर लड़की की शादी हो गयी। दुष्यंत से नहीं। बनारस के किसी अमीर आदमी से। वो रेल में बैठ कर बनारस चली गयी और दुष्यंत पुल की तरह थरथराते खड़े रहे" कुछ देर खामोश रहने के बाद अचल ने कहा, "ये पूल टूटे हुए आशिकों का थरथराता हुआ देह है, दुष्यंत, उस दिन के बाद अक्सर शाम को इसी पुल के नीचे जाते थे और भरे हुए गले से गया करते थे।

"तू किसी रेल सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ"

काजल ने अचल की बात काटते हुए कहा, "पर तुमने तो कहा था कि मैं पुल देखूंगी तो तुम्हारी याद आएगी।  तुम दुष्यंत कुमार की कहानी सुना रहे हो"

अचल ने हँसते हुए कहा, "इस दुनिया में हर टूटे हुए आशिक की कहानी एक जैसी ही तो है। दुष्यंत को याद करना, मुझे याद करना है और मुझे याद करना इस थरथराते हुए पुल को याद करना है"

काजल कुछ देर चुप रही फिर उसने धीरे से कहा, "अचल तुम मुझसे प्यार करते हो कि नहीं" ?
अचल ने हल्की मायूस आवाज़ में कहा, "काजल मैं थरथराता हुआ नहीं, टूटा हुआ पुल हूँ। तुम्हे उस पार नहीं पहुंचा सकूंगा"

काजल ने हल्की खीज के साथ कहा, "क्या हुआ अचल, मुझे साफ़ साफ़ बताओ !!"

अचल ने एक गहरी सांस बाहर फेंकते हुए कहा, "पुल के उस पार दूर जो सबसे बड़ा मकान देख रही हो, वो घर आरती का था" अचल ने जैसे ही आरती का नाम लिया। गंगा जी की आरती शुरू हो गयी, पर काजल को अचल की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। ये कहानी अगर फिल्म होती तो गंगा-आरती की आवाज़ गज़ब का साउंड इफेक्ट पैदा करती, और आपकी आँखों में आंसू भी सकते थे।

अचल:-आरती को मैंने विद्रोह करना सिखाया, किसी को विद्रोही बनाना उसके भीतर प्रेम के बीज को रोपना है। आरती विद्रोही हो रही थी इसलिए उसने प्रेम करना भी शुरू कर दिया। उसने एक दिन यहीं, इन्हीं सीढ़ियों पर बैठे हुए मुझसे कहा, “अचल मैं तुमसे प्रेम करती हूँ " जब उसके मुंह से प्रेम शब्द निकला तो मुझे उसका वो बड़ा घर दिखा, फिर उसके पिता और भाइयों का रसूख फिर अपना फूस का छप्पर, अपने विक्षिप्त पिता और बूढी माँ चेहरा मेरी आँखों के सामने नाचने लगा। मेरे कानों में उनके सपने गूंजने लगे। मैंने कहा, आरती मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूँ, आरती ने झुंझलाहट में पूछा, क्यों ? क्योंकि तुम गरीब हो? मैं चुप था, और आरती ये बताती हुई चली गयी कि उसके घरवाले उसकी शादी करना चाहते हैं, पर वो ये नहीं होने देगी। आरती के जाने के बाद मैं अपने भीतर के कायर से रात भर लड़ता रहा। रात में करीब ढाई बजे आरती का फोन आया। आरती रो रही थी। उसने रोते हुए कहा, "अचल चलो भाग चलते हैं" मैंने तुरंत जवाब दिया, "आरती मुझे भागना नहीं आता" आरती ने फोन रख दिया। फोन रखते हुए वो ऐसे रोई जैसे कोई बड़ी इमारत गिरी हो। मुझे लगा उसका बड़ा घर उसके ऊपर गिर पड़ा हो।

अचल अब खामोश हो गया था, काजल ने अचल के कंधे पर हाँथ रख कर पूछा, "फिर क्या हुआ, अचल ?

अचल:अगली सुबह जब यूनिवर्सिटी पहुंचा तो पता चला आरती ने आत्महत्या कर ली है। वो भागना चाहती थी। मैंने मना किया तो अकेले ही भाग गयी। दोस्तों ने बताया उसने मेरे लिए एक खत लिख छोड़ा है। दोस्तों ने सलाह दी मुझे भाग जाना चाहिए। मैंने तुरंत कहा, "मुझे भागना नहीं आता" अगले एक घंटे मैं यहाँ-वहाँ पागलों की तरह टहलने के बाद इसी पुल के नीचे शमशान में खड़ा था। आरती धुएं में बदल रही थी। उसी समय एक रेलगाड़ी पुल से गुजरी और आरती की चिता से उठता हुआ धुआँ पुल से टकराया और मुझे महसूस हुआ कि पुल टूट गया है। रेल गंगा में गिर गयी है और अब कोई रेल इस पुल से फिर कभी नहीं गुजरेगी। मैं ये सब महसूस कर रहा था कि एक हाँथ पीछे से मेरे गिरेबान पर पड़ा और आवाज़ हुई, "यही है वो लौंडा...यही है वो लौंडा..." मुझे लोग पीट रहे थे और मुझे दर्द नहीं हो रहा था। पुलिस ने मुझे गिरफ्तार किया और तीन साल तक मैं जेल में रहा। इस बीच माँ मर गयी और पिता कहीं खो गए। मुझे अब भी भागना नहीं आया था। मैं यूनिवर्सिटी आया और जो विद्रोह मैं तब नहीं जी सका था। उसे जीने लगा। प्रेम को जीना विद्रोह को जीना है। इसलिए मैं सारा जीवन विद्रोह करता रहूँगा। सारा जीवन प्रेम करता रहूँगा।

रात के आठ बज रहे थे। अचल ने काजल को बाइक पर बिठाया और मनकामेश्वर, बैहराना, बालसन, आनंद भवन होते हुए गर्ल हॉस्टल पर छोड़ दिया। रास्ते भर दो पक्तिं गुनगुनाता रहा......."तुम अज़ब धुएँ सा सुलगती हो/ मैं किसी पुल सा टूट जाता हूँ" काजल, अचल का टूटना महसूस करती रही और अचल, काजल का सुलगना। अचल ने काजल को गर्ल्स हॉस्टल छोड़ा और आनंद भवन के सामने ज़र्ज़र ईमारत में बने पार्टी दफ्तर में चला गया। उस रात वो ऐसे रोया जैसे पहले कभी नहीं रोया था। अचल विद्रोह के हर मोर्चे पर लड़ा और छत्तीसगढ़ के किसी मोर्चे पर अनुशासन की किसी गोली का शिकार हो गया।

ये बात काजल को कभी नहीं पता चली जैसे अचल को कभी नहीं पता चला कि काजल ने अपने बेटे का नाम अचल रखा है और बेटी का नाम आँचल। काजल के बेटे अचल को दुष्यत कुमार की ग़ज़लें बहुत पसंद है और वो "तू किसी रेल सी गुजरती है/ मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ" कि जगह काजल के मुंह से सुनी हुई लाइनें  "तुम अज़ब धुएँ सा सुलगती हो/ मैं किसी पुल सा टूट जाता हूँ" गाता है। 

तुम्हारा-अनंत