मंगलवार, अप्रैल 16, 2019

नींद: नौ कविता ग्यारह क़िस्त-3

तुम हिचकी की तरह आई थी
और किसी दर्द की तरह गई

जाने से कहाँ कोई जाता है
उसका कुछ ना कुछ रह ही जाता है
जैसे मेरी दादी की छड़ी रह गई
और तुम्हारी अनकही बात

खेत में बीज रोपते वक़्त
या किसी ढलान से उतरते हुए
तुम्हारी बहुत याद आती है
मेरा हमशक्ल दीपक के नीचे
अंधेरे की शक्ल में रहता है

ईश्वर जरूर हरी घास के मैदान में बैठा
कोई उदास निठल्ला आदमी है
वो जब जब घांस नोचता है
ज़िगर तक जाने वाली मेरी नसों में खिंचाव उठता है
किसी दिन जब मैं हृदयाघात से मरूँगा जान लेना
ईश्वर की नौकरी लग गई है
और उसने अपने आसपास की सारी घास नोच दी है

रात के तीन बजे जब रात जा चुकी है
दिन आ रहा है
मैं बीच में खड़ा हूँ
किसी एक्सीडेंट के इंतज़ार में
कि नींद की कोई गाड़ी
150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आये
और मुझसे टकरा जाए
मैं जियूँ या मरूँ
कम्बख़त मुझे नींद तो आए।

अनुराग अनंत

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