माँ |
मैंने माँ को देखा है ,
तन और मन के बीच ,
बहती हुई किसी नदी की तरह ,
मन के किनारे पर निपट अकेले,
और तन के किनारे पर ,
किसी गाय की तरह बंधे हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी मछली की तरह तड़पते हुए बिना पानी के,
पर पानी को कभी नहीं देखा तड़पते हुए बिना मछली के ,
मैंने माँ को देखा है ,
जाड़ा,गर्मी, बरसात ,
सतत खड़े किसी पेढ़ की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
हल्दी,तेल, नमक, दूध, दही, मसाले में सनी हुई ,
किसी घर की गृहस्थी की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी खेत की तरह जुतते हुए,
किसी आकृति की तरह नपते हुए,
घडी की तरह चलते हुए,
दिए की तरह जलते हुए ,
फूलों की तरह महकते हुए ,
रात की तरह जगते हुए ,
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
पर..... माँ को नहीं देखा है,
कभी किसी चिड़िया की तरह उड़ते हुए ,
खुद के लिए लड़ते हुए ,
बेफिक्री से हँसते हुए ,
अपने लिए जीते हुए,
अपनी बात करते हुए ,
अपनी बात करते हुए ,
मैंने माँ को कभी नहीं देखा ,
मैंने बस माँ को माँ होते देखा है ,
तुम्हारा --अनंत