जनकवि विद्रोही जी ............ |
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है
जो नहीं देखना चाहता वही दिखता है
कितना बेदर्द है वो ऊपर वाला मदारी
थक चुका हूँ मैं, फिर भी मुझको नचाता है
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........
खाना नहीं वो मुझको ग़म खिलाता है
पानी नहीं वो मुझको आंसू पिलाता है
जब कभी मन मार कर मैं सो जाता हूँ
मार कर थप्पड़ वो मुझको जगाता ह,
वक़्त बेवत वो मुझको सताता है.........
मुझे यकीं था वो मेरी इज्ज़त बचा लेगा
जब कभी मैं गिरूंगा वो मुझको उठा लेगा
पर ग़लत था मैं, ग़लत थी ये सोच मेरी
सरेआम, भरे बाज़ार वो मेरी इज्ज़त लुटता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ............
जब थामी कलम मैंने और कलमकार बन गया ,
बस उसी दिन उसकी नज़र में गुनहगार बन गया ,
निराला,मुक्तिबोध बनने की वो कीमत माँगता है,
गरीबी से जुझाता है, भूंख से तड़पाता है ,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है ........
महफ़िलों में अक्सर दिल का दर्द कहता हूँ ,
कविता में आँखों से आंसूं बन कर बहता हूँ
मरी हुई हसरतों,अरमानों की लाश पर ,
ये खुदगर्ज जमाना ताली बजाता है,
वक़्त बेवक़्त वो मुझको सताता है.........
तुम्हारा --अनंत
महाकवि निराला जी.............. |
जनकवि रमाशंकर ''विद्रोही'' और महाकवि निराला को मेरी ये कविता आदर भाव से समर्पित | ये दोनों ऐसे कवि है जिन्होंने कविता लिखने के साथ-साथ कविता को जिया भी | ये दोनों कवि मेरे लिए आदर्श का श्रोत है | निराला जी और विद्रिही जी ने ये सिखाया है कि कैसे जीवन को अपनी शर्त पर जिया जाता है फिर इसके लिए चाहे जो कीमत देनी पड़े , मैं इनदोनों को जब भी याद करता हूँ तो मुझे मुक्तिबोध की पंक्तियाँ ''अभिवयक्ति के खतरे उठाने पड़ेंगे''याद आ जाती है | सच में इन सब कवियों ने वास्तव में अभिव्यक्ति के खतरे उठाये है ,विद्रोही जी आज भी JNU की सड़कों पर फक्कड़ों की तरह जनता की आवाज़ में,जनता की तरह फटे कपड़ों, मैले कुचैले वेश मेंअपनी पूरी सामाजिक,राजनीतिक ,
औरआर्थिक चेतना से सृजित कविता ,
करते हुए मिल जायेंगे ,मेरा उन सभी जनता के कवियों के जीवन संघर्ष को नमन जिन्होंने अभिव्यक्ति के खतरे उठाए है और जो लगातार उठा रहे है उन्हें भी सलाम .....और मेरी ये कविता उन सबको समर्पित |
तुम्हारा--अनंत
3 टिप्पणियां:
हमारा भी नमन ।
वर्तमान सुविधाभोगी समाज में ऐसे कवियों का होना एक अनोखी घटना है!
संवेदनशील रचना ..
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