कौन कहता है कि मैं कविता लिखता हूं ,
मैं लिखता हूँ पर कविता नहीं ........
मैं लिखता हूँ .......
अपने मन की बात को ,
दिल के दर्द को ,जज्बात को ,
ख़ुशी को , उमंग को ,बहती तरंग को ,
प्रक्रति के प्रेम को ,इंसानों की जंग को ,
कलियों को ,फूलों को ,उनकी महक को ,
पक्षियों के जीवन को ,गुंजन को ,उनकी चहक को ,
नदियों की कल -कल को ,झरनों की झरन को ,
चन्द्रमा की शीतलता को ,आकाश की स्थिरता को ,
सूरज की लाली को ,पंडों की हरियाली को ,
मैं लिखता हूँ ...........
नदी और सागर के प्यार को , प्यार के खुमार को ,
झूठ और सच की तकरार को , छाई हुई बहार को ,
होठों की मुस्कराहट को ,दबे पांवों की आहट को ,
काल के कपाल को ,शोभित मृत्यु कपाट को ,
जन्म की खुशियों को ,मरण के अवसाद को ,
उत्तेजना की स्फूर्ति को ,छाये हुए प्रमाद को ,
जीत को ,प्रीत को ,जीवन के मीत को ,
ख़ुशी को ,दुख को सर्वत्र फैले भयभीत को ,
लिखता हूँ ...........
मैं लिखता हूँ ...............
मैं लिखता हूँ ...............
रिश्तों के ताने बाने को, टूटते मकानों को ,
भाई बहन के लगाओ को ,माँ बाप के जुड़ाव को ,
पति-पत्नी के संबंध को ,प्यार के बन्ध को ,
लुटते हुए बचपन को ,बटते हुए आँगन को ,
अस्थिर धरा को ,काली ज़रा को ,
महकती फिजा को ,बहती हवा को ,
आँखों में पानी को ,सिसकती जवानी को ,
मजबूर कहानी को ,जिन्दगी वीरानी को ,
लिखता हूँ ..................
मैं लिखता हूँ ...............
मैं लिखता हूँ ...............
फैले हुए डर को , शक्तिहीन कर को ,
धमाकों की आवाज़ को ,सहमे समाज को ,
फर्श पर फैले खून को ,उमड़ते जूनून को ,
रोते बिलखते परिवार को ,पल में उजड़ते संसार को ,
राजनीतिक कुटिलता को ,संसदीय जटिलता ,
भूंखे पेटों को ,आसमाँ के नीचे लटों को ,
मैं लिखता हूँ ........मैं कविता नहीं लिखता हूँ ...........
मैं सच्चाई लिखता हूँ ...
जब अच्छाई देखता हूँ ....
तब अच्छाई लिखता हूँ .......
जब बुराई देखता हूँ
तब बुराई लिखता हूँ ..........
मैं लिखता हूँ
तब बुराई लिखता हूँ ..........
मैं लिखता हूँ
पर कविता नहीं लिखता !!!!!!!!!
तुम्हारा ---अनंत
5 टिप्पणियां:
भाई अति उत्तम .........सार्थक प्रयास जारी रहे !एक दिन वो भी अपना होगा जो कभी किसी और का था !
बहुत सटीक और सुन्दर अभिव्यक्ति..
आप जो लिखते हैं बहुत अच्छा लिखते हैं । आप जो भी कहें हम तो इसे कविता कहते हैं ।
bejod likha hai......
आप बहुत अच्छा लिखते हे
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