इश्तिहारों में छपे चेहरे
जब देश की नियति तय कर रहे हों
और भ्रम की नींव पर खड़े
आज़ादी के किले ढह रहे हों
जब चौराहों पर खड़ी, बैठी और चलती लाशें
जल्लादों को मसीहा बताने पर तुलीं हों
तब उस वक्त रोटी के सवालों पर लड़ता आदमी क्या करेगा ?
क्या कहेगा ?
जब देश की नियति तय कर रहे हों
और भ्रम की नींव पर खड़े
आज़ादी के किले ढह रहे हों
जब चौराहों पर खड़ी, बैठी और चलती लाशें
जल्लादों को मसीहा बताने पर तुलीं हों
तब उस वक्त रोटी के सवालों पर लड़ता आदमी क्या करेगा ?
क्या कहेगा ?
ख़ामोशी के इस महापर्व में
क्या पसीने के साम्मान में खून बहाने वाले भी खामोश हैं
या हमें ही नहीं सुनाई देती
उसकी आवाजें
चीखें, और ललकारें
उनके सवालों का लश्कर न जाने कहाँ है ?
उनके खून में बहती जलन
और सांस में बैठी घुटन का
न जाने क्या बयाँ है ?
या हमें ही नहीं सुनाई देती
उसकी आवाजें
चीखें, और ललकारें
उनके सवालों का लश्कर न जाने कहाँ है ?
उनके खून में बहती जलन
और सांस में बैठी घुटन का
न जाने क्या बयाँ है ?
एक नंगा सच है इस समय का कि
रीढ़ की हड्डी वाले लोग
बरदास्त नहीं है इस तिलिस्मी बसंत को
जवाबों के इस उत्सव में
सवालों के माथे पर मौत लिखी जा रही है
और जो लोग जिन्दा रहने की ज़िद में हैं
बन्दूक की नोंक पर
या देशप्रेम की झोंक पर
जंगलों में ठेले जा रहे हैं
विचारधारा के पेट में पलती नययाज़ औलादें
एक साथ पैदा हो गयीं हैं
और आदमी, जिसके पास विचारधारा है
स्वयं नाजायज़ होता जा रहा है
दोपहर की ऊब के वक्त
जब जूठी थाली की तरह पड़ा हुआ आदमी
खुद की लाश को ये समझाता है
कि यही सब कुछ तो होना था, जो हुआ है
और जो हुआ है, उसमें गलत क्या है ?
उसी वक्त उसके
खून में सना अँधेरा
उसे अधमरे सांप सा डसता है
आधा मारता है, आधा मरता है
उन्हें देखो, वो अब सरताज हैं
रीढ़ की हड्डी वाले लोग
बरदास्त नहीं है इस तिलिस्मी बसंत को
जवाबों के इस उत्सव में
सवालों के माथे पर मौत लिखी जा रही है
और जो लोग जिन्दा रहने की ज़िद में हैं
बन्दूक की नोंक पर
या देशप्रेम की झोंक पर
जंगलों में ठेले जा रहे हैं
विचारधारा के पेट में पलती नययाज़ औलादें
एक साथ पैदा हो गयीं हैं
और आदमी, जिसके पास विचारधारा है
स्वयं नाजायज़ होता जा रहा है
दोपहर की ऊब के वक्त
जब जूठी थाली की तरह पड़ा हुआ आदमी
खुद की लाश को ये समझाता है
कि यही सब कुछ तो होना था, जो हुआ है
और जो हुआ है, उसमें गलत क्या है ?
उसी वक्त उसके
खून में सना अँधेरा
उसे अधमरे सांप सा डसता है
आधा मारता है, आधा मरता है
उन्हें देखो, वो अब सरताज हैं
वो भूख के मुंह में देशप्रेम के नारे ठूस देना चाहते हैं
शायद उन्हें नहीं मालूम
कि भूखे आदमी के लिए रोटी बड़ी है और देश छोटा
शायद उन्हें नहीं मालूम
कि भूखे आदमी के लिए रोटी बड़ी है और देश छोटा
शरहदों से ज्यादा उन्हें अपने बच्चों की फिकर है
उनका राष्ट्रगान, वो लोरी है जिसे सुनकर भूखा बच्चा सोता है
उनका राष्ट्रगान, वो लोरी है जिसे सुनकर भूखा बच्चा सोता है
उन्होंने एक लहर चलाई है, जिसमे सबकुछ चमकता दीखता है
बच्चों की लोरी, मेहनतकश का देश, उसकी रोटी, जमीन और जंगल पर
कंकरीट की कतारें, कारखानों का सैलाब और दौलत का समंदर
लहराते हुए दीखते हैं
इस बीच
उधर मुझसे और मेरी लाश से दूर खड़ा
मेरा प्यारा देश !
सपनो के जूते कसता है
कभी हँसता है, कभी रोता है
मरे हुए सूरज की लाश
अपने कंधों पर ढोता है
अधमरी रौशनी को जहर पिलाकर
बंजर जमीन पर बोता है
और मैं चीखता हूँ
क्या लोकतंत्र में यही होता है ?
भूख का इतिहास
और दर्द का भूगोल
बदलने पर विदूषक तुले हैं
और मैं सोच रहा हूँ
की हम किस माटी में ढले है ?
बसंत जिस गाँव में मारा गया था
शायद उसी गाँव में पले हैं
जिस रास्ते पर चलते चलते
गांधी एक भूल/ एक भ्रम
एक लचीला शब्द हो गए
अब तक शायद उसी पर चले हैं
रात के आगोश में
षड्यात्रों के आग में कई सूरज जलें है
उनकी लाश पर भी तिरंगा था
कंठों में राष्ट्रगान, और जहन में जवाब था
सवाल उनसे छीन लिए गए थे
या ऊंचाई पर चढ़ने के लिए
बोझ समझ कर उन्होंने ही फेंक दिए गए थे
इस तिलिस्मी बसंत को सवाल पसंद नहीं हैं
इसलिए या तो हमारे सवाल भी छीन लिए जायेंगे
या फिर मजबूरी में हमें उन्हें फेंकना पड़ेगा
सवालों के बिना दोनों ही सूरत में
षड्यात्रों में की आग में सूरजों का जलना तय है
इसीका मुझे भय है
उन्हें जो करना है, वो कर रहे हैं
एक-एक कर के, इस गाँव में भी बसंत मर रहे हैं
अब हम अपने पते के जवाब में कहने वाले हैं
जिस गावों में बसंत मारा था
हम उसी गाँव के रहने वाले हैं !!
तुम्हारा अनंत